हर किसी का ईमान ताजा होगा हमारे प्यारे नबी S S की प्यारी बातें सुनकर

एक दोस्त ने दरियाफ़्त किया कि हम मज़हबी नसीहतों में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ऐसी सुन्नतों का ज़िक्र तो कस़रत से सुनते हैं जो “रस्मी” (ritualistic) हैं, जैसे दाएं हाथ से खाना, मिस्वाक़ और ख़ास लिबास पहनना वगैरह, लेकिन ऐसी सुन्नतों का ज़िक्र उमूमन नहीं सुनते जो क़िरदारी (behavioral) हैं। मैंने उनको तो नहीं बताया, लेकिन दिल में सोचा कि हमें वही सुन्नतें बयान करना सूट करता है जो हम करके दिखा सकें। जो करके दिखानी मुश्किल हो, वो हम बयान भी नहीं करते।

तो आएं, कुछ क़िरदारी सुन्नतों की याद ताज़ा कर लेते हैं।मुमकिन है, उनमें से कुछ पर अमल की तौफ़ीक भी मिल जाए।

रिसालत ए माब सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत ये थी कि आप बच्चों को सलाम करने में पहल फरमाते थे और उनके साथ बिल्कुल बच्चों जैसा बन कर खेल और हंसी मज़ा फरमाते थे।
आप अपनी बीवियों को या ख़ादिमों को न तो मरते थे और न झगड़ते थे। फरमाते थे कि तुम में से बेहतरीन लोग वो हैं जिनका बरताओ अपने घर वालों के साथ अच्छा हो।

आप कभी किसी खाने की चीज़ में ऐब नहीं निकलते थे। चीज़ पसंद होती तो खा लेते थे, वरना ख़ामोशी से हाथ खींच लेते थे।
आप किसी के साथ सख़्त कलामी या बेहूदा गोई नहीं फरमाते थे। फरमाते थे कि जिसकी बद कलामी की वजह से लोग उससे गुरेज़ करें, वो अल्लाह की नज़र में बदतरीन शख़्स है।
कर्ज़ या किसी चीज़ की क़ीमत अदा करते हुए या किसी को काम की उजरत देते हुए वाजिब उल अदा रक़म से ज़्यादा अदा फरमाते थे।

आप अपनी ज़ात के लिए कभी किसी से इंतिक़ाम नहीं लेते थे।
मजलिस में लोगों से नुमाया हो कर तशरीफ़ नहीं रखते थे और न अपने आने पर लोगों के खड़ा होने को पसंद फरमाते थे।
अगर मजलिस में बड़े और छोटे दोनों मौजूद हों और कोई चीज़ तक़सीम करने में पहला हक़ छोटों का बनता हो तो उनसे इजाज़त लिए बगैर बड़ों से इब्तिदा नहीं फरमाते थे।

कोई साहब ए हक़ सख़्त कलामी करता तो उस पर बिल्कुल बुरा नहीं मानते थे। फरमाते थे कि हक़दार को सख़्त बात कहने का हक़ होता है।
हमेशा मुस्कुरा कर फरमाते और मुख़ातब की तरफ़ पूरी तरह मुड़ कर और पूरी तवज्जो से गुफ्तगू फरमाते थे।

कोई भी ग़रीब या बेहैसियत शख़्स आप से जब भी और मदीने की जिस गली में भी रोक कर बात करना चाहता, आप उसकी बात सुनते थे और कभी ख़ुद उससे रुख़सत नहीं चाहते थे, बल्कि जब वो चाहता, तभी रुख़सत होते थे।
ख़ुत्बा मुख़्तसर और जामे देते थे, दौराने ख़ुत्बे में हाथों को बहुत ज़्यादा हरक़त नहीं देते थे और दुआ में काफ़िए के साथ कलाम और पुर-तकल्लुफ़ अंदाज़ इख़्तियार नहीं फरमाते थे।
इसको सख़्त ना-पसंदीदा फरमाते थे कि आपके सामने आपके साथियों की गलतियों और उयूब बयान किए जाएं। फरमाते थे कि मेरे दिल को मेरे साथियों की तरफ़ से साफ़ रहने दिया करो।

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