क्यों लाज़मी है हर एक शख्स के लिए मानवाधिकार् ?

image008

हर व्यक्ति को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी होना आवश्यक है। मानव अधिकार का मतलब है ऐसे हक जो हमारे जीवन और हमारे मान-सम्मान से जुड़े हों। मानव अधिकार जो कानून के तहत आते हैं। इसी विषय पर हम दे रहे है जानकारी।

मानव अधिकार आयोग की स्थापना 2 अक्टूबर 1993 में हुई। जिसके उद्देश्य नौकरशाही पर रोक लगाना, मानव अधिकारों के हनन को रोकना तथा लोक सेवक द्वारा उनका शोषण करने में अंकुश लगाना। मानवाधिकार की सुरक्षा के बिना सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आज़ादी खोखली है मानवाधिकार की लड़ाई हम सभी की लड़ाई है। विश्वभर में नस्ल, धर्म, जाति के नाम मानव द्वारा मानव का शोषण हो रहा है। अत्याचार एवम जुल्म के पहाड़ तोड़े जा रहे हैं। हमारे देश में स्वतंत्रता के पश्चात् धर्म एवम जाति के नाम पर भारतवासियों को विभाजित करने का प्रयास किया जा रहा है। आदमी गोरा हो या काला, हिन्दू हो या मुस्लमान, सिख हो या ईसाई, हिंदी बोले या कोई अन्य भाषा सभी केवल इंसान हैं और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित मानवाधिकारों को प्राप्त करने का अधिकार है।

मानव अधिकार का मतलब ऐसे हक़ जो हमारे जीवन और मान-सम्मान से जुड़े हैं। ये हक़ हमें जन्म से मिलते हैं, हम सब आज़ाद हैं। साफ़ सुथरे माहौल मैं रहना हमारा हक़ है । हमें इलाज़ की अच्छी सहूलियत मिले। हमें और हमारे बच्चों को पढाई-लिखाई की अच्छी सहूलियत मिले। पीने का पानी साफ मिले। जाति, धर्म, भाषा-बोली के कारण हमारे साथ भेदभाव न हो।

हमें हक़ है क़ि हम सम्मान के साथ रहें और सम्मान के साथ जीवन यापन करे। कोई हमें अपना  दास या गुलाम नहीं बना सके। प्रदेश में हम कहीं भी बेरोकटोक आना-जाना कर सकते हैं। हम बेरोकटोक बोल सकते हैं, लेकिन हमारे बोलने से किसी के मान-सम्मान को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए। हमें आराम करने का अधिकार है। हमें यह तय करने का अधिकार है की हमारे बच्चे को किस तरह की शिक्षा मिले। हर बच्चे को जीने का अधिकार है, उसे अच्छी तरह की शिक्षा मिले।

यदि हमें हमारा हक़ दिलाने मैं सरकारी महकमा हमारी मदद नहीं कर रहा है तो हम मानव अधिकार आयोग में शिकायत कर सकते हैं। आयोग में सीधे अर्जी देकर शिकायत कर सकते हैं।इसके लिए वकील की जरूरत नहीं है। शिकायत किसी भी भाषा या बोली में कर सकते हैं हिंदी में हो तो और अच्छा है।

शिकायत लिखने के लिए कैसे भी कागज़ का इस्तेमाल करें, स्टैम्प पेपर की कोई जरूरत नहीं होती। आयोग के दफ्तर में टेलीफोन नम्बर पर भी शिकायत दर्ज कर सकते हैं।

महिला अधिकारों के संरक्षण को तवज्जो देते हुए सन् 1993 में एक प्रस्ताव के माध्यम से उन्हें मजबूती दी गयी। शिशु अधिकारों को बल प्रदान करने के लिए सन् 1959 तथा सन् 1989 में विशेष प्रबंध बनाये गये। जिसमें विशेष रूप से शिशु के जीवन यापन के अधिकार से लेकर उसके संरक्षण के अधिकार तक की विस्तृत चर्चा की गयी।

इसी प्रकार अल्प संख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए भी महासभा ने समय-समय पर चिंतन किया है। इसके अतिरिक्त मजदूरों तथा उनके परिवारों की सुरक्षा के प्रावधान भी ‘मानवाधिकारों’ में शामिल किये गये है।

भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, यौन शोषण, शारीरिक उत्पीड़न, मानसिक प्रताड़ना और बलात्कार जैसे दानवों से घिरी आधी दुनिया ‘मानवाधिकारों’ की जरूरत को रेखांकित करते करते अक्सर थक सी जाती है। इन सारी समस्याओं से आगे बढ़ते हुए आदिवासियों के भू अधिकारों की समस्या और वनवासियों को उजाड़े जाने की दास्तां भी ‘मानवाधिकारों’ की चर्चा को आवश्यक और प्रासंगिक बनाती है।

तमाम आदिवसी और वनवासी सैकड़ों वर्षों से वनों और उनके आसपास के इलाकों में निवास कर रहे है। इनके परंपरागत अधिकारों और ‘मानवाधिकारों’ की समुचित पहचान अभी तक नहीं की जा सकी है, और आज तक उन्हें चकबंदी, सीलिंग, पट्टे, भू अभिलेख या भूमि आबंटन का पर्याप्त लाभ नहीं मिल पाया है।

हैरत की बात यह है कि सभी को समान मानने वाली इस व्यवस्था की सरकार इस बात को आसानी से स्वीकार कर लेती है। इन वर्गों को अब तक वास्तविक लाभ से वंचित ही रखा गया है।

‘    मानवाधिकार’ और वर्तमान में उनकी दशा पर इतनी व्यापक चर्चा किये जाने के बाद भी यह विषय अधूरा ही रह गया है। कारण यह कि मानव समाज में जो समस्याएं उपस्थित है उनसे निपटना ही ‘मानवाधिकार’ की संकल्पना का लक्ष्य है।

सूखा, बाढ़, गरीबी, अकाल, सुनामी, भूकंप, युद्ध या दुर्घटनाओं के चलते जो लोग शिकार हो रहे है, पीड़ित या परेशान चल रहे है उनके लिए ‘मानवाधिकारों’ का ध्यान रखा जाना अपेक्षित जान पड़ रहा है। इन सारे मामलों में कानून को भी सक्रिय भूमिका का निर्वहन करना होगा।

विकास के साथ मानवता के आपसी रिश्तों को भी रेखांकित करना होगी न कि विकास के नाम पर किये जा रहे निर्माण के बाद लोगों को बे-घर बार कर दिया जाये? अनुकूल पर्यावरणीय स्थितियों की भी महती आवश्यकता है। ‘मानवाधिकार’ संबंधी घोषणाओं को जमीनी सच्चाईयों में बदलना होगा। जिससे ऐसी घोषणाएं महज दस्तावेजी बनकर न रह जाये। शायद इन्हीं सब बातों में ‘मानवाधिकार’ दिवस की सार्थकता भी निहित है। हमारे देश की सरकार ‘मानवाधिकार’ को लेकर सजग है, किंतु इस सजगता में और अधिक धार लाने की जरूरत है।

 

SHARE THIS

RELATED ARTICLES

LEAVE COMMENT