रोज़ाना जानवरों की तरह स्लीपर क्लास में यात्रा करने को हैं मजबूर हज़ारो लोग क्यों?जानिए इसकी खास वजह !

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रिपोर्टर.

रेल मंत्री और रेल मंत्रालय चाहे लाख दावे कर ले कि रेल यात्रियों के अच्छे दिन आ गए हैं ,

लेकिन  इसकी हकीकत तो  कुछऔर  ही बया करती है !

रोज़ाना हज़ारो यात्रियों का  हाल ये है कि आज भी जानवरों की तरह लम्बी दूरी की ट्रेनों में यात्रा करने को मजबूर हैं ?

जनरल डिब्बे की बात ही मत कीजिये सीजन में (होली,दीवाली और गर्मी की छुटियों) तो सबसे अधिक दयनीय इसी क्लास से सफर करनेवालों की होती है।

कुछ इसी तरह के हालात स्लीपर क्लास वालों  के यात्रियों के है।

ट्रेन जैसे ही मुम्बई सीएसटी से रवाना होती है उसमें टिकट चेकिंग स्टाफ चढ़ते हैं और जो भी यात्री साधारण यानी बिना रिजर्वेशन टिकट के स्लीपर क्लास में चढ़ जाते हैं उन्हें दण्डित यानी उनसे जुर्माना वसूल कर उन्हें वैध यात्री बना दिया जाता है !

इसके बाद दादर,ठाणे, कल्याण ,इगतपुरी और आखिरकार भुसावल (गुजरात से महाराष्ट्र और यूपी बिहार जाने के लिए प्रवेश स्टेशन है) में यात्री स्लीपर कोच में चढ़ते हैं ।

इनमे से कईयो के पास वेटिंग टिकट होता है, जबकि कई यात्री वही जनरल क्लास का टिकट लेकर चढ़ते हैं ।

ये सब टिकट चेकर्स की मेहरबानी और भारतीय रेल के प्रवधानों के कारण वैध यात्री बनकर स्लीपर क्लास में बैठ जाते है।

कोई यात्री पैसेज में बैठ जाता है तो कोई शौचालय के पास बिस्तर बिछाकर सो जाता है ।

इस तरह एक आरक्षित डिबे में क्षमता (79 यात्री) से करीब 5 गुना अधिक यात्री सफर करते है।

चूंकि शौचालय और पैसेज में दूसरे यात्री सोये रहते है इससे जो पहले से आरक्षित टिकट यानी जिसका सीट कनफर्म होता है उन्हें शौचालय तक जाने के लिए कसरत करनी पड़ती है।

सबसे अधिक परेशानी तो महिलाओं, बच्चों और वरिष्ठ नागरिकों तथा मरीजों को झेलनी पड़ती  है ।

इस बीच समय समय पर अधिकृत (रेलवे के केटरिंग) और अनधिकृत विक्रेता यात्रियों के लिए परेशानी का सबब बनते हैं।

जितनी अधिक डिबे में भीड़ रहती है ,फेरीवाले उतने ही अधिक उत्साह  से डिब्बे   में चढ़ कर धंधा करते है ।

बात यदि सुरक्षा की की जाए तो कभी कभार जीआरपी यानी रेल पुलिस स्लीपर कोच में दिखाई देते े हैं ।

इसी का फायदा उठाकर अनधिकृत विक्रेता बेधड़क यात्रियों को परेशान करते हुए अपना धंधा करते हैं और चोर उच्चके यात्रियों का सामान लेकर रफू चक्कर हो जाते हैं इसका किसी को पता भी नहि चल पाता।

अब बात खाने पीने की चीज़ों की की जाए

चूंकि यात्रियों की मजबूरी होती है कि वो ट्रेन में खरीदकर खाना खाये । इसी का फायदा उठाकर घटिया और बेस्वाद खाना बाजार भाव से काफी अधिक कीमत पर बेचा जाता हैं।

ऊपर का दृश्य चित्रण महज किसी एक विशेष ट्रेन की एक यात्रा का है, लेकिन इसी तरह दृश्य मुंबई से उत्तर भारत की तरफ रोजाना चलनेवाली लम्बी दूरी की ट्रेनों का है।

सवाल यह है कि प्रत्येक रेल मंत्री द्वारा हर साल रेल बजट में (वैसे  2016 से रेल बजट को आम बजट में शामिल कर दिया गया है ) यात्री सुविधा और सुरक्षा को सर्वोपरि और प्राथमिकता दिए जाने की बात की जाती है,

लेकिन सच तो यही है कि भारतीय रेल के यात्री महज जानवर समझे जाते हैं  (खासकर जनरल और स्लीपर क्लासवाले) रेलवे उन्हें महज ढाई गज का सीट देकर इतिश्री समझ लेता है।

हर साल यात्री सुविधा के नाम पर यात्रियों से करोड़ों रुपये वसूले जाते हैं, लेकिन मुम्बई से उत्तर भारत की तरफ जानेवाली ट्रेनों में यात्रियों के सफर (इसका मतलब पीड़ित होना भी समझा जा सकता है) को लगता नही कि हम 21 सदी की भारतीय रेल से यात्रा कर रहे हैं।  काश रेल यात्रियों के भी अच्छे दिन आये ?

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