मामला मोदी जी को विदेशों से दिए गए पुरस्कार का एक कड़वा सच
नई दिल्ली
राजेश जे जैन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हाल के वर्षों में कई छोटे-मोटे देशों से सम्मान और पुरस्कार मिले हैं। ये पुरस्कार देखने में भले ही चमकदार लगें, लेकिन इनके पीछे की सच्चाई पर सवाल उठना लाजिमी है। अंधभक्तों और पालतू मीडिया का उत्साह इन पुरस्कारों को भारत की वैश्विक साख का प्रतीक बताने में कोई कसर नहीं छोड़ता। लेकिन अंदरूनी सूत्रों की मानें, तो इन सम्मानों के लिए भारत का विदेश मंत्रालय बड़े पैमाने पर लॉबिंग करता है। यह एक ऐसा खेल है, जिसमें राजनयिक रिश्तों, आर्थिक सहायता और कूटनीतिक दबाव का इस्तेमाल कर छोटे देशों से पुरस्कार खरीदे जाते हैं।
सबसे पहले, यह समझना जरूरी है कि ये पुरस्कार कितने सार्थक हैं। छोटे देश, जिनके पास वैश्विक मंच पर सीमित प्रभाव है, अक्सर भारत जैसे बड़े देशों के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने के लिए ऐसे सम्मान देते हैं। यह कोई नई बात नहीं है कि भारत जैसे देश अपनी आर्थिक और कूटनीतिक ताकत का इस्तेमाल कर इन देशों को प्रभावित करते हैं।
विदेश मंत्रालय की लॉबिंग, जिसमें वित्तीय सहायता, व्यापारिक सौदे या अन्य प्रलोभन शामिल हो सकते हैं, इन पुरस्कारों का आधार बनती है। यह एक तरह का “देने-लेने” का खेल है, जिसमें पुरस्कार सिर्फ एक औपचारिकता बनकर रह जाता है।
पालतू मीडिया इस खेल को जनता तक पहुंचाने में माहिर है। हर पुरस्कार को “मोदी जी की वैश्विक विजय” के रूप में पेश किया जाता है, जबकि हकीकत में ये सम्मान अक्सर कूटनीतिक सौदेबाजी का नतीजा होते हैं। अंधभक्त इस प्रचार में डूबकर तर्क और तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं। सवाल यह है कि अगर ये पुरस्कार वास्तव में इतने महत्वपूर्ण हैं, तो विश्व के बड़े और प्रभावशाली देश भारत को ऐसे सम्मान क्यों नहीं देते? क्या यह संयोग है कि ज्यादातर पुरस्कार उन देशों से मिलते हैं, जो भारत की आर्थिक मदद या कूटनीतिक समर्थन पर निर्भर हैं?
यह भी गौर करने लायक है कि भारत जैसे देश को अपनी वैश्विक साख के लिए ऐसे पुरस्कारों की जरूरत क्यों पड़ रही है? क्या हमारी उपलब्धियां, हमारी संस्कृति, हमारी अर्थव्यवस्था और हमारा लोकतंत्र खुद में इतने मजबूत नहीं हैं कि हमें छोटे देशों से सर्टिफिकेट लेने की जरूरत पड़े? यह लॉबिंग न केवल संसाधनों की बर्बादी है, बल्कि यह हमारी आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान पर भी सवाल उठाती है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि ये पुरस्कार प्रचार का एक हिस्सा हैं, जिसका मकसद जनता का ध्यान वास्तविक मुद्दों से हटाना है। बेरोजगारी, महंगाई और सामाजिक असमानता जैसे सवालों से ध्यान भटकाने के लिए चमकदार हेडलाइंस और तस्वीरें काफी हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि देश की प्रगति पुरस्कारों की चमक में नहीं, बल्कि जमीन पर बदलाव में नजर आती है।
साभार; पिनाकी मोरे