खुद को अंबानी और अडानी से बड़ा रईस समझना छोड़ दे

शादियों में फ़िज़ूलख़र्ची की अंधी होड़

भारत में तीन समुदाय महंगी शादियों के लिये जाने जाते हैं, गुजराती, मारवाड़ी और पंजाबी।
इन समुदायों में होने वाली शादियों को लोग टीवी सीरियल्स और

फिल्मों में देखते हैं और उनकी देखा-देखी में अपने बच्चों की शादियों में फ़िज़ूलख़र्ची करते हैं।

उनकी होड़ करने से पहले दो बातें जान लेनी चाहिये,

01. गुजराती, मारवाड़ी और पंजाबी समुदायों में शादियाँ भी व्यापारिक रिश्तों को साधने का काम करती हैं।
02. इन समुदायों के लोग अपने शादी समारोहों में अपनी सम्पत्ति का एक बहुत छोटा हिस्सा ख़र्च करते हैं।

आइये एक मिसाल से समझने की कोशिश करें।

माना कि मुकेश अम्बानी ने अपनी बेटी की शादी पर 300 करोड़ ख़र्च किये। 300 करोड़ बहुत बड़ी रकम होती है लेकिन उस ख़र्च की अम्बानी के यहाँ क्या औकात है? क्या आपने इस पहलू की ओर कुछ सोचा है?
जबकि मुकेश अम्बानी की कुल सम्पत्ति है, 7,50,000 करोड़ रुपये। मुकेश अम्बानी ने अपनी बेटी की शादी पर ख़र्च किये, 300 करोड़।

आइये ख़र्च का प्रतिशत निकालते हैं,
300 करोड़/7,50,000 करोड़ ×100
= 0.04%

मुकेश अम्बानी ने अपनी बेटी की शादी में अपनी कुल ऐसेट का 0.04% ख़र्च किया।
अब अगर कोई 1 करोड़ रूपये की आसामी अपनी बेटी की शादी में मुकेश अम्बानी से होड़ करना चाहे तो ज़्यादा से ज़्यादा कितने रुपये ख़र्च कर सकता है?
100,00,000 × 0.04% = 4,00,000 रुपये (अक्षरे चार लाख रुपये)

आंकड़े आपके सामने हैं। मुस्लिम समाज की बर्बादी और बदहाली की वजह आप समझ सकते हैं। हमारे समाज में मिडिल क्लास फेमिली अपनी बेटी की शादी में 4-5 लाख रूपये ख़र्च कर देती है। बहुत से लोग क़र्ज़ लेकर दुनियावी रिवाज निभाते हैं। महज दिखावा ही नही बल्कि खुद को कमज़ोर कर लेते है और गुरबत को दावत देते है।

अब बात करना चाहेंगे अमीरों की। हमारे समाज में 4-5 करोड़ रुपयों की जायदाद वाले “नये रईस” अपनी बेटी की शादी में 25-30 लाख रूपये फूंक डालते हैं। अगर उनके ख़र्च का प्रतिशत निकाला जाए तो वो क़रीब 5% होता है। यानी मुकेश अम्बानी से 100 गुना ज़्यादा। मुसलमान ये गणित समझने की कोशिश करे।

अल्लाह करे मुस्लिम समाज के लोगों को यह गणितीय आंकड़ों वाली पोस्ट समझ में आ जाए तो वो घर फूँककर तमाशा देखने वाली नवाबी फ़ितरत छोड़ सकता है।
मारवाड़ी कहावत है, घड़ीक भर री शोभा, उमर भर री लोबा इसका मतलब होता है, थोड़े समय की तारीफ़, ज़िंदगी भर का रोना बन जाती है।

अंत में हमारा यही कहना है कि अपने घरों में मंगनी, सगाई, शादी की तारीख़, बान बिठाई, हल्दी, मेहंदी, रतजगा, बारात, बारात की दावत, दहेज, डीजे-बाजे, आतिशबाजी, वीडियो शूटिंग, वग़ैरह रस्मों में फ़िज़ूलख़र्ची बंद कीजिये। ख़ुद को “अम्बानी-अडानी” से बड़ा रईस समझना बन्द कीजिये।

बेहतर यह है कि अपने बच्चों को काम-धंधा लगवाईये और उनके लिये घर बनवाइये। इसके साथ ही आख़िरत के घर की भी फ़िक्र कीजिये और अल्लाह के दीन की ख़ातिर माल-दौलत का कुछ हिस्सा ख़र्च कीजिये।

संवाद:मो.राशिद खान

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