हमारे कुछ लोगों को पता ही नही, कि काफिर किसे कहते है, काफिरऔर गैर मुस्लिम में क्या फर्क है?


हमारे यहां इन दोनों अल्फ़ाज़ को एक ही मफ़्हूम में इस्तेमाल किया जाता है। जबकि कुरआन काफ़िर का लफ्ज़ एक ख़ास मफ़्हूम में बयान करता है।
आप शुरू से आख़िर तक कुरआन पढ़ लें आपको मिलेगा कि कुरआन जहां यहूद की बात करता है तो उन्हें यहूद कहता है, जहां नसारा की बात करता है तो उन्हें नसारा कहता है, जहां मुशरिकीन की बात करता है तो उन्हें मुशरिकीन कहता है, कुरआन हर मज़हब को उसके असल नाम से पुकारता है सबको इज्तिमाई तौर पर काफिर नहीं कहता।

कुफ़्र का मतलब इनकार करना होता है और कुरआन इसी मफ़्हूम में इसको इस्तेमाल करता है, यानी जिस शख़्स तक किसी नबी ने दावत ए हक पहुंचाई हो और उस पर वाज़ेह कर दिया हो कि अल्लाह ही उसका रब है लेकिन इसके बाद वो इन्कार कर दे तो ऐसा शख़्स कुफ़्र का मुर्तकिब हुआ है और कुरआन उसी को काफ़िर कहता है।

इसी से यह बात बिल्कुल वाज़ेह होती है कि आज के दौर में हम किसी ईसाई, यहूदी, हिंदू को काफ़िर नहीं कह सकते बल्कि हम उनकी बात करते हुए उनको उनके मज़हब के नाम से ही पुकारेगें। ईसाई को ईसाई, यहूदी को यहूदी और हिंदू को हिंदू कहेंगे। क्योंकि कुफ़्र का इतलाक़ सिर्फ उसी शख़्स पर होता है जिस पर हक़ वाज़ेह कर दिया जाए और वो उसका इंकार कर दे।

कुरआन की ये एक आयत ही काफ़ी है जिसमें अल्लाह ने इन कैटेगरीज़ को वाज़ेह कर दिया है:

बेशक अहले किताब और मुशरिकीन में से वो लोग जिन्होंने कुफ़्र इख्तियार कर लिया है वह जहन्नम की आग में जाएंगे जहां वह हमेशा रहेंगे, यही लोग बदतरीन मखलूक हैं।”
(सूरेह 98, आयत 6)।

इस आयत में गौर करने वाला हर शख़्स समझ सकता है कि तमाम मुशरिकीन और तमाम अहले क़िताब को काफ़िर नहीं कहा गया बल्कि अल्लाह ने उन सब में से चंद लोगों को काफ़िर कहा है, और ये वो लोग हैं जिनके सामने हक़ को वाज़ेह कर दिया जाता है लेकिन ये लोग इस वाज़ेह हक़ का इन्कार कर देते हैं।

गैर मुस्लिम जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है, जो शख़्स भी मुस्लिम नहीं होगा वो गैर मुस्लिम कहलाएगा। मुसलमानों के अलावा तमाम ईसाई, यहूदी, हिंदू, मुल्हिद गैर मुस्लिम हैं। हर काफ़िर गैर मुस्लिम होता है लेकिन हर गैर मुस्लिम काफ़िर नहीं होता। जिस गैर मुस्लिम पर हक़ बिल्कुल वाज़ेह हो जाए लेकिन इसके बावजूद वो उसका इंकार कर दे तो वो गैर मुस्लिम फिर काफ़िर कहलाएगा।

आप किसी को कह दें कि अल्लाह एक है, कुरआन उसकी क़िताब है, मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसके आख़िरी नबी हैं ,और वो ना माने तो इसका हरगिज़ ये मतलब नहीं कि अब वो काफ़िर हो गया है क्योंकि आपने सिर्फ उसको बताया है उस पर हक़ को वाज़ेह नहीं किया।
सिर्फ बता देने पर तो कोई भी क़ुबूल नहीं करता जब अंबिया ने आकर लोगों को ये बताया था तो किस ने क़ुबूल किया था ?

लिहाज़ा अंबिया ने एक तवील अरसे तक दावत का काम किया, उन लोगों को तरह-तरह के इल्मी और अक्ली दलाईल से समझाया जब उन पर हक़ वाज़ेह हो जाता था लेकिन इसके बावजूद वो इन्कार करते थे तो अब फिर अल्लाह हुक्म देता था कि अब ये लोग तो कुफ़्र इख्तियार कर चुके हैं लिहाज़ा अब उन पर अज़ाब नाज़िल होगा।

दुनिया में तकरीबन 95% लोगों को इस्लाम के बारे में पता तो है लेकिन उन सब पर
हर वाज़ेह नहीं है, सिर्फ नाम की हद तक पता होने का ये मतलब नहीं कि उनके सामने हक़ और बातिल वाज़ेह हो चुका है, लिहाजा उन्हें काफिर के बजाय गैर मुस्लिम या उनके मज़हब के नाम से ही पुकारना ज्यादा बेहतर है और कुरआन में यही तरीक़ा इख्तियार किया है। हमारे लोगों को पता नहीं काफ़िर कह कर पुकारने में कौन सा स्पेशल मज़ा आता है?

अल्लाह ने इस उम्मत पर दावत ए दीन की ज़िम्मेदारी डाली है, कुफ़्र के फतवे लगाने की नहीं, दिलों के हाल अल्लाह जानता है वो ख़ुद इंसाफ के साथ फैसला कर देगा कि किस शख़्स पर हक़ वाज़ेह नहीं हुआ था और किस शख्स ने हक़ वाज़ेह होने के बाद कुफ़्र का रास्ता इख्तियार कर लिया था, आपका काम सिर्फ दावत देना है उसका रिज़ल्ट निकालना नहीं।

संवाद

मो अफजल इलाहाबाद

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