आगे क्या होगा कहना मुश्किल है ,क्यों पीएम के सभी कार्ड खत्म होने को है?
विशेष
संवाददाता
क्या मोदी के सारे कार्ड खत्म हो गये?
तथ्य और तर्क भावनाओं से परे होते हैं और सच्चाई अक्सर तल्ख होती है। सीमा पर ड्रोन उड़े और मिसाइले दगीं लेकिन इसके साथ-साथ प्रधानमंत्री मोदी ने भी एक झटके में अपने सारे पत्ते एक साथ फेंक दिये।
उनके पास अब कुछ भी ऐसा नहीं बचा जो आनेवाले दिनों में उन्हें राजनीतिक रूप से मजबूत कर पाये या राजनीतिक ढलान पर उनकी फिसलन को रोक सके।
आइये बिंदुवार समझते हैं
1) प्रधानमंत्री मोदी ने एक महीने भीतर अपने राजनीतिक जीवन के तीन सबसे बड़े फैसले लिये हैं और वो भी ताबड़तोड़। ये तीनों फैसले उनके लिए मेक ऑर ब्रेक हैं। शुरुआत पहले फैसले से। 1 अप्रैल 2025 से केंद्र सरकार की इनकम टैक्स कटौती लागू हो गई। जब बजट में इसकी घोषणा हुई थी तो कुछ लोगों को यकीन नहीं हुआ था। कहां ये सरकार डीटीसी (डायरेक्ट टैक्ट कोड) लाकर टैक्स वसूली और ज्यादा बढ़ाने वाली थी, फिर ये यू टर्न क्यों?
2014 के बाद से केंद्र सरकार का हर कदम मिडिल क्लास और छोटे व्यापारियों की कमर तोड़ने वाला रहा है। चाहे वो शार्ट टर्म और लांग टर्म कैपिटल गेन टैक्स को, डिविडेंड टैक्स या फिर नोटबंदी। तो फिर ऐसा क्या हो गया कि सरकार को इनकम टैक्स में ऐतिहासिक कटौती करनी पड़ी?
ऐसा इसलिए हुआ कि क्योंकि इकॉनमी की हालत बेहद खराब है। जनता की क्रय-शक्ति दिन ब दिन घटती जा रही है और बाजार में खरीदार नहीं है। जो लोग घुमा-फिराकर यह कहते थे कि सरकार की ओर से पेश किये जाने वाला जीडीपी का आंकड़ा वास्तविकता से मेल नहीं खाता, उनमें से कुछ लोग खुलकर कहने लगे कि आंकड़े फर्जी है और अर्थव्यस्था महंगाई जनित दीर्घकालिक मंदी ।
(Stagflation) के लंबे कुच्रक में फंसने वाली है।
ऐसे में सरकार को मजबूरन टैक्स कटौती करनी पड़ी ताकि बाजार में डिमांड लौटे और इसका असर कंपनियों के वित्तीय नतीजों पर दिखाई दे।
2) इनकम टैक्स कटौती से सरकार पर लगभग सवा लाख करोड़ का बोझ पड़ेगा। लगभग इतना ही बोझ सॉवेरन गोल्ड बांड के भुगतान का है। भारत जैसी अर्थव्यवस्था में ढाई-तीन लाख करोड़ रुपये बहुत होते हैं।
अर्थशास्त्रियों का एक तबका इस बात को लेकर सशंकित है कि अगर मार्केट में डिमांड पूरी तरह वापस आएगा इस बात की गारंटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि मध्यमवर्ग अपने भविष्य को लेकर डरा हुआ है और वो खर्च करने के बदले बुरे वक्त के लिए पैसे बचा रहा है। अगर अर्थव्यस्था का पहिया घूमना शुरू नहीं हुआ तो इस साल के अंत तक देश गंभीर संकट में होगा।
आर्थिक मोर्चे पर उठाये गये अपनी तरह के इस पहले प्रो-एक्टिव कदम के लाभ सीमित हैं क्योंकि इकॉनमी का मसला सिर्फ डिमांड की कमी नहीं है। उत्पादन संतोषजनक ढंग से नहीं बढ़ रहा है, नये रोजगार सृजित नहीं हो रहे हैं, अंतराष्ट्रीय व्यापर की चुनौतियां हैं। ऐसे में उपाय के फायदे तो सीमित हैं लेकिन इसके विफल होने के खतरे बहुत बड़े हैं। ऐसा हुआ तो चीजें और ज्यादा बिगड़ेंगी।
3, टैक्स कटौती के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने अपने जीवन का दूसरा सबसे बड़ा फैसला पाकिस्तान के साथ सैन्य टकराव के रूप में लिया। प्रतिरक्षा मामले में मोदी की बंद मुट्ठी लाख की थी। उनके कोर वोटर यही मानते थे कि जिस दिन भी पाकिस्तान से आमना-सामना हुआ, मोदी का न्यू इंडिया चंद दिनों में दुश्मन को धूल चटा देगा। लेकिन इस सैन्य टकराव के नतीजों मोदी के लिए अप्रिय सवालों का पिटारा खोल दिया।
4) 1962 के बाद संभवत: यह सीमा पर पहला ऐसा सैन्य अभियान है, जिसमें देश को पर्याप्त नुकसान उठाकर वापस लौटना पड़ा। सैनिक कार्रवाई किस उदेश्य से की गई और इसे अमेरिकी दबाव में एक झटके में खत्म क्यों किया गया, इससे जुड़े ज्यादातर सवालों के जवाब सरकार के पास नहीं हैं।
5) मजबूत और सुरक्षित भारत के नरेंद्र मोदी के दावे की अधिकतम परीक्षा हो गई। गलवान में चीन के अनधिकृत कब्जे पर सरकार की चुप्पी के बाद पाकिस्तान के साथ अपमानजनक सीजफायर ने देश को बता दिया कि प्रतिरक्षा मामले में मोदी भारत के लिए अधिकतम क्या हासिल कर सकते हैं।
6) अब दुश्मन को मिटाने और दुनिया भर में डंका बजाने की कोई और नई कहानी बेच पाना प्रधानमंत्री मोदी के लिए लगभग असंभव होगा। मोदी के कोर वोटर भी कश्मीर के मामले में अमेरिकी दखलंदाजी की उस कोशिश को स्वीकार नहीं करेंगे, जिसकी आशंका ऑपरेशन सिंदूर के बाद पैदा हुई है।
7) नरेंद्र मोदी ने अपने वोटरों को लिए एक स्थायी फॉर्मूला बनाया है, जो पाकिस्तान = मुसलमान = देशद्रोही = विपक्ष है। मोदी जब भी पाकिस्तान का नाम लेते हैं उनके वोटरों के जेहन में आम भारतीय मुसलमान की छवि उभरती है। लेकिन पहलगाम हमले के बाद से जिस तरह पूरे देश ने एकजुटता दिखाई और इस मामले के सांप्रदायिक बनाने की कोशिशों को विफल कर दिया, उससे मोदी की राजनीति को बहुत बड़ा धक्का लगा है।
8) पाकिस्तान के साथ सैन्य टकराव के दौरान इस देश के मुसलमानों ने अपना अल्ट्रा नेशनलिस्ट चेहरा दिखाया है। हर शहर मस्जिदों से भारत की जीत की प्रार्थना की गई और मुस्लिम समुदाय के लोग सड़कों पर उतरे। सीमा पर मुसलमानों ने भी शहादत दी। ऐसे में आने वाले चुनावों में अपने कथित राष्ट्रवाद की आड़ में मोदी के लिए छिपा हुआ सांप्रदायिक कार्ड खेलना काफी मुश्किल होगा।
9) अगर मोदी 2024 के चुनाव की तरह खुलकर मुसलमानों के खिलाफ बयानबाजी करते हैं, तब भी संदेश यही जाएगा कि वो आंतरिक सुरक्षा में विफल रहने और उसके बाद पाकिस्तान को सबक सिखाने में मिली नाकामी से ध्यान बंटाने के लिए ऐसा कर रहे हैं।
10) अब आते हैं, नरेंद्र मोदी के आखिरी पत्ते पर, जो बेहद चौकाने वाला था। जिस वक्त देश पहलगाम हमले का शोक मना रहा था, उसी दौरान सरकार ने अचानक जातिगत जनगणना कराने की घोषणा की। विपक्ष के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान यह सबसे बड़ी मांग थी। दूसरी तरफ मोदी इसे अर्बन नक्सलों का एजेंडा बता रहे थे और रैलियों में अपने वोटरों को यह कहकर डरा रहे थे कि ये उनका आरक्षण छीनकर मुसलमानों को देने की साजिश है।
11) फिर रातो-रात ऐसा क्या हो गया कि प्रधानमंत्री मोदी को जातिगत जनगणना की मांग स्वीकार करनी पड़ी और वो भी पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की तैयारियों के बीचो-बीच।
सारा खेल यही हैं और प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक करियर आखिरी दांव भी यही है। आरएसएस भारत के वंचित समूहों में प्रतिनिधित्व को लेकर चल रही बेचैनी ठीक से समझ रहा है। संघ इस बात को लेकर भयभीत है कि अगर प्रतिनिधित्व के सवाल ने सिर उठाया और निचली हिंदू जातियां अंबेडकर के दिखाये गये आधुनिकता के रास्ते पर चलीं तो फिर हिंदू राष्ट्र के खंभे पूरी तरह उखड़ जाएंगे।
इसलिए नरेंद्र मोदी अब अपना आखिरी दांव खेलते हुए कट्टर ओबीसी बनकर वोटरों के बीच जाएंगे, उन्हें यकीन है कि जिस तरह विपक्ष के वेलफेयर स्कीम को रेवड़ी बताते-बताते उन्होंने डायरेक्ट सब्सिडी को कामयाबी के साथ अपना हथियार बना लिया, उसी तरह सामाजिक न्याय के चैंपियन बन जाएंगे।
खुद मोदी ही नहीं बल्कि बीजेपी-आरएस का राजनीति भविष्य भी इसी दांव पर निर्भर है। आगे क्या होगा इस बारे में कोई दावा करना मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि मोदी के पास अब कोई नया पत्ता नहीं बचा है। अगर आपको लगता हो तो जरूर बताइये।
संवाद;पिनाकी मोरे