“प्यारी प्रकृति, माफ़ करना… हमने तुम्हें ‘धन्यवाद’ तक नहीं कहा” — बच्चों की चिट्ठियाँ जो आपको भीतर तक झकझोर देंगी
बागपत/प्रतापगढ़, 19 मई 2025: सोचिए, कोई बच्चा बैठा है, हाथ में कलम है, और वो चिट्ठी लिख रहा है। किसी दोस्त को नहीं, किसी रिश्तेदार को भी नहीं। वो लिख रहा है प्रकृति को — उस मिट्टी, उस हवा, उन पेड़ों, नदियों और चिड़ियों को, जिनके बिना ये ज़िंदगी नाम की चीज़ अधूरी है।
और उस चिट्ठी में लिखा है — “तुमने हमें सब कुछ दिया, हमने तुम्हें ‘धन्यवाद’ तक नहीं कहा।” ये कहानी है ‘एक पत्र प्रकृति के नाम’ अभियान की, जिसकी शुरुआत आज प्रतापगढ़ से हुई है। अब आप कहेंगे कि चिट्ठियाँ कौन लिखता है आजकल? लेकिन जब मामला दिल का हो, माफ़ी माँगने का हो, तो ईमेल से काम नहीं चलता। ये पहल है — दिल से, बच्चों के हाथों से।
मिशन LiFE के तहत शुरू हुई ये पहल। भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के मिशन LiFE (Lifestyle for Environment) के अंतर्गत, नेचर ग्रीन फ्यूचर ट्रस्ट और उड़ान यूथ क्लब की साझेदारी में ये अभियान चल रहा है।
इसका उद्देश्य? बच्चों को प्रकृति से जोड़ना — न भाषणों से, न पोस्टर्स से, बल्कि एक चिट्ठी से। टारगेट क्या है? देशभर से 11,000 चिट्ठियाँ इकट्ठा की जाएंगी, जिन्हें 5 जून को, यानी विश्व पर्यावरण दिवस के दिन, सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय भेजा जाएगा। मतलब, प्रकृति के नाम लिखी गई मासूम आवाज़ें सीधे नीति-निर्माताओं के कानों तक पहुँचेंगी।
कहां से हुई शुरुआत? अभियान का पहला दिन था, और जगह थी उत्तर प्रदेश का प्रतापगढ़। यहाँ के डॉल्फिन पब्लिक स्कूल, दिलीपुर और कंपोजिट विद्यालय, घीनापुर दमदम में बच्चों ने कलम उठाई और अपने मन की बात कागज़ पर उतारी। 700 से ज़्यादा बच्चों ने हिस्सा लिया। और उनके लिखे शब्द? सीधे दिल में उतरने वाले।
किसी ने लिखा — “जब पेड़ हमें साँस देते हैं, तो लोग उन्हें काटते क्यों हैं?” कोई बोला — “अब से मैं थर्माकोल की प्लेट नहीं लूँगा।” किसी ने वादा किया — “हर साल एक पेड़ लगाऊँगा।” और किसी ने रोती हुई धरती की तस्वीर बना दी।
कौन हैं इस मुहिम के कप्तान? इस अनोखी पहल की कमान संभाली है दो युवा पर्यावरण योद्धाओं ने — सुंदरम तिवारी (प्रतापगढ़) और अमन कुमार (बागपत)। दोनों को राज्य युवा पुरस्कार मिल चुका है। इनका सपना है — बच्चों को सिर्फ़ किताबों से नहीं, प्रकृति से जोड़कर सिखाना।
कार्यक्रम में शिक्षकों का भी भरपूर साथ मिला। प्रधानाचार्य मनोज तिवारी ने कहा — “ये प्रतियोगिता नहीं थी, बच्चों की आत्मा की पुकार थी।” शिक्षिका गायत्री त्रिपाठी बोलीं — “ऐसे अनुभव पाठ्यक्रम से ज़्यादा असर करते हैं।” टीचर ब्रिगेड में प्रवीण सिंह, शिव शंकर निगम, सरवेश सिंह, अजय पांडे, विनय रंजन ओझा, सतीश पांडे जैसे नाम शामिल रहे, जो बच्चों को पूरे दिल से गाइड कर रहे थे।
बात अब सिर्फ़ प्रतापगढ़ की नहीं रही… इस अभियान से अब दिल्ली यूनिवर्सिटी का हंसराज कॉलेज, समृद्ध संस्कृति फाउंडेशन, मेरा युवा भारत जैसे संस्थान भी जुड़ चुके हैं। ऑनलाइन भी बच्चों को मौका दिया जा रहा है — गूगल फॉर्म के ज़रिए। हर चिट्ठी भेजने वाले को मिलेगा डिजिटल सर्टिफिकेट, और सभी पत्र सोशल मीडिया पर भी साझा किए जाएँगे। मतलब, बच्चों की बात पहुँचेगी देश के हर कोने में।
ये चिट्ठियाँ क्यों ज़रूरी हैं? क्योंकि हम प्लास्टिक कम करने के नारे तो लगाते हैं, पर कभी खुद से नहीं पूछते कि “कब आखिरी बार मिट्टी को हाथ से छुआ?” पर्यावरणविद् सुंदरम तिवारी ने यही सवाल बच्चों से पूछा, और उनके भीतर सोच का बीज बो दिया।
हमारी राय… आज के डिजिटल युग में, जहाँ बच्चे स्क्रीन से चिपके रहते हैं, वहाँ हाथ से लिखी गई चिट्ठियाँ एक क्रांतिकारी कदम हैं। ये सिर्फ़ अभियान नहीं, ये है एक संवेदनशीलता की पाठशाला। जहाँ पर्यावरण को रटाया नहीं जा रहा, महसूस कराया जा रहा है। और जब बच्चे कहते हैं — “प्रकृति माँ, अब से मैं तुम्हारा ख्याल रखूँगा” — तो समझिए, भविष्य की दिशा सही मोड़ ले चुकी है।