इस्लाम ने मर्द वो जन को गज्ज ए बसर अर्थात निगाहे नीची रखने का हुक्म दिया है,जाने इस की खास वजह
एमडी डिजिटल न्यूज चैनल और प्रिंट मीडिया
संवाददाता और ब्यूरो
इस्लाम ने मर्द-ओ-ज़न को ग़ज़्ज़-ए-बसर (निगाहें नीची रखने) का हुक्म दिया है।
सवाल हुआ कि ग़ज़्ज़-ए-बसर का क्या मतलब?
अर्ज़ किया कि आपकी निगाह सरसरी सी हो खोजने वाली न हो।
सवाल हुआ कि खोजने वाली निगाह और सरसरी निगाह में फ़र्क कैसे करेंगे?
फरमाया कि खोजने वाली निगाह वो होती जिस निगाह से आप ग़ैर औरत को देखते हैं।
और सरसरी निगाह वो होती है जिस निगाह से आप अपनी बीवी को देखते हैं।
क्या किसी मिसाल से मज़ीद तफ़्हीम मुमकिन है?
अर्ज़ किया कि अगर मैं आपसे सवाल करूं कि आज आपकी अहलिया ने किस रंग का लिबास पहना है और किस रंग का दुपट्टा लिया हुआ है? तो आप साफ़ दिल से अल्लाह को गवाह बना कर बताइए आपका जवाब क्या होगा? साइल लाजवाब होकर बोला सच्ची बात ये है कि मुझे ख़ास याद नहीं
कि वाइफ ने कौनसा रंग पहना हुआ था हालांकि निकलने से पहले उसने दरवाज़े के पास मुझे पंद्रह मिनट का लेक्चर दे कर रुख़सत किया है।
तो जनाब-ए-आली इसको सरसरी नज़र कहते हैं जिस नज़र को पता तक नहीं होता कि सामने वाले का पहनावा क्या है।
रह गई खोजने वाली नज़र तो इस बारे में भी मैं आपसे ही सवाल करूंगा क्योंकि आपने अपनी सदाक़त और दयानतदारी साबित कर दी है, किसी दूसरे से अब सवाल करने में मज़ा नहीं आएगा।
मेरे दर्स में आते हुए आपने चार पांच सिग्नल पार किए हैं। किसी सिग्नल पर आपकी गाड़ी रुकी होगी और कुछ पैदल लोग आपके सामने से गुज़रे होंगे जिनमें दो चार ख़्वातीन भी होंगी?
आपको न सिर्फ़ उन ख़्वातीन के लिबास याद होंगे बल्कि आपने उनकी नेशनलिटी के बारे में भी अंदाज़ा लगाने की कोशिश की होगी कि वो किस मुल्क की हैं।
जो बदकिस्मती से आपकी ये बात भी दुरुस्त है। साइल ने खिसियानी हंसी हंसते हुए जवाब दिया।
बस यही खोजने वाली नज़र कहलाती है। मैंने अर्ज़ किया। खोजने वाली नज़र बीवी का हक़ भी है और उसकी अमानत भी, मगर हमने ये नज़र कहीं और वक़्फ़ कर दी हुई है।
अगर ये आदाब-ए-मु’आशरत हम सीख जाएं तो फिर हमारे वो बहुत सारे मसाइल पैदा ही नहीं होते जिनके लिए हमें बाद में सौ बहाने करने पड़ते हैं।
संवाद;
मो अफजल इलाहाबाद