पर्दादारी और सभ्यता एक ऐसी चीज है पूरी दुनिया में किसी एक भी शख्स को इस से इंकार नहीं

पर्दा और सभ्यता , पूरी दुनियाँ में एक भी शख्स को पर्दे का इनकारी नहीं है।

पूरी दुनियाँ में पर्दा किसी भी सभ्यता का मुख्य आधार होता है, नग्नता कभी सभ्य हो ही नहीं सकती , इंसान और जानवर में एक फर्क यह भी है ।

पूरी दुनियाँ में मर्द हो या औरत शायद ही कोई हो जिसको पर्दे की इनकारी हो, हाँ उसके नजदीक पर्दे का मानक अलग अलग जरूर हो सकता है, किसी के नजदीक सिर्फ शरीर के प्राइवेट पार्ट का पर्दा करना जरूरी है, लेकिन पूरी दुनिया में कोई भी सिर्फ अपने गुप्तांग का पर्दा करके पब्लिक प्लेस में आना पसंद नहीं करता, क्यों कि उसे मालुम है वह भी भली प्रकार से मेरे तन का इतना पर्दा सभ्यता के दायरे से बाहर है।

किसी के नजदीक उससे कुछ और अधिक तो कुछ के नजदीक कुछ और अधिक , तो कोई गले से लेकर पैरो तक को ढकना जरूरी समझता है, तो कोई सर से लेकर पैर तक तो कोई चेहरे समेत पूरे तन को ही ढकना अनिवार्य समझता है ।

अब आप इन तमाम बातों से बआसानी से अंदाजा लगा सकते है, समाज में जो जितना ज्यादा पर्दा कर रहा है वह उतना ज्यादा सभ्यता के लिए माना जाता है ।

इंसानी समाज में नग्नता एक ऐसी चीज है जो बेशर्मी का प्रतीक है इसे कभी किसी ने भी आदर भाव से नहीं देखा होगा,इज्जतदार समाज में इसे कटी भी पसंद नही किया जा सकता, चाहे वो खुद को कितना ही मोडर्न समझता हो, इसलिये इस्लाम में मर्द और औरत दोनों के लिये पर्दादारी का आदेश दिया गया है , और शर्म को ईमान की अहम साख बतलाया गया है। परदादारी ही औरतों का असली जेवर है।

, यही मानव जगत की सभ्यता का मूल आधार भी है जो सदियों से चला आ रहा है और विश्व की हर संस्कृति और हर धर्म में इसकी छाप और पहचान हमें आज भी मिलती है ।

एक इंसान के नजदीक सिर्फ गुप्तांग का पर्दा जितना अनिवार्य है वही ठीक दूसरे के नजदीक पूरे तन का पर्दा भी उतना ही अनिवार्य है, अब अगर कोई गुप्तांग के पर्दे को जान कर भी मना करे तो क्या उसे इंसान समझेगें ?
तो जो हिजाब का विरोध करते हैं वह लोग कैसे मनुष्यता की श्रेणी में आ सकते है ?

विश्व की प्राचीन सभ्यताओं के दौर में भी सिर ढंकने की परंपरा का उल्लेख मिलता है, सिर ढंकने की परंपरा हिन्दू, यहूदी, जैन, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम और सिख धर्म के पहले से ही रही है।
बेबीलोनिया, इजिप्ट (मिस्र), सुमेरियन, असीरिया, सिंधु घाटी, मेसोपोटामिया आदि अनेक प्राचीन सभ्यताओं की प्राप्त मूर्तियों और मुद्राओं में हमने महिलाएं ही नहीं, पुरुषों को भी सिर और कान को ढंके हुए देखा है।

प्राचीनकाल से ही सिर ढंकने को सम्मान, सुरक्षा और रुतबे से जोड़ा जाता रहा है। ओढ़नी, चुनरी, हिजाब, बुर्का, पगड़ी, साफा, मुकुट, जरीदार टोपी, टोपी, किप्पा या हुडी (‍यहूदी टोपी) आदि सभी सभ्यताओं के दौर से निकलकर आज अपने नए रूप में प्रचलित हैं।

हालांकि मध्यकाल में सिर ढंकना एक सभ्य, अमीर और कुलीन समाज की निशानी माना जाता था। ऐसा भारत में भी प्रचलित था। निचले तबके की महिलाओं को सिर ढंकने की इजाजत नहीं थी। केरल का इतिहास तो बहुत ही प्रसिद्ध है वहाँ की निचली जाति की महिलाओं को तो स्तन तक ढकने का अधिकार नहीं था, अगर कोई महिला अपने स्तन ढकना चाहे तो उसे स्तन काट कर देना होता था।

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