1980तक मक्का में हालात ऐसे थे कि हज के नाम पर लाखों जानवरों की कुर्बानी दी गई थी कुर्बानी का दस फीसद से भी कम गोश्त इस्तेमाल हो रहा था बाकी गोश्त कहां जाता था ?
हज पर हर साल तक़रीबन लाखो लोग जाते हैं।
क़ुर्बानी के बिना हज के अहकाम पूरे नहीं होते।
तो क्या हर साल हज पर लाखो जानवर ज़ब्ह होते हैं?
अगर हां तो इतना गोश्त कहां जाता है?
ज़ाहिर है हाजी वहां बैठकर बुच्चे, बोटी, कबाब, बिरयानी तो करते नहीं होंगे?
1980 तक मक्का में हालात ये बन गए थे कि लाखों जानवर कट रहे थे और क़ुर्बानी का दस फ़ीसद से भी कम गोश्त इस्तेमाल हो पा रहा था। बाक़ी गोश्त फिकता था, या दफ़्न होता था। इसके बाद इस्लामिक विकास बैंक और सउदी सरकार ने इसका हल निकाला।
मुफ्तियों से ऐलान करवाया गया कि क़ुर्बानी वाजिब है, क़ुर्बानी के वक़्त हाजी भी मौजूद रहे, ऐसा कहीं नहीं लिखा है। फ़िर हाजियों से क़ुर्बानी के पैसे लेकर टोकन जारी किए जाने लगे। फिल्हाल इस टोकन की क़ीमत प्रति हाजी क़रीब 500-700 दिरहम है।
सरकार ने मीट प्रोसेसिंग और फ्रीज़िंग प्लांट लगाए औरतीन दिन तक चलने वाली क़र्बानी के लिए सुविधाओं का विकास किया। हाजी के बदले की क़ुर्बानी सरकार कराती है। कोई हाजी लेना चाहे तो उसको ज़रूरत मुताबिक़ गोश्त मिल जाता है। बाक़ी गोश्त फ्रीज़ करके उन देशों में भेज दिया जाता है जहां ग़ुरबत ज़्यादा है, या जहां युद्ध अथवा प्राकृतिक आपदाओं की वजह से भुखमरी के हालात हैं।
क़रीब पैंतीस साल पहले शुरु हुए इस अज़ही कार्यक्रम के तहत लगभग 24 देशों में हर साल क़ुर्बानी का बचा हुआ गोश्त भेजा जाता है। इस तरह क़ुर्बानी के नाम पर जो गोश्त ज़ाए चला जाता था, वो लोगों का पेट भरने के काम आ रहा है। इस स्कीम का एक फ़ायदा और है। कम से कम हज पर हिन्दी, बंगाली, और पाकिस्तानी मुसलमानों पर लाख रुपये का बकरा ख़रीद कर, काजू-बादाम खिलाकर, या पांच-सात बकरे काटकर दिखावा करने का दबाव ख़त्म हो गया है।
बेचारा हाजी वापस लौटकर डींग भी नहीं हांक सकते कि उन्होंने एक क्विंटल का गधे जैसा बकरा काटा है या इतने लंबे सींगों वाला दुंबा ज़िबह किया है, या फिर पांच क्विंटल का ऊंट नहर करके आए हैं :
संवाद; मो अफजल इलाहाबाद