हिंदू मजहब में कावड़ यात्रा की महिमा,आज का बदला हुआ कावड़ यात्रा
विशेष
संवाददाता
पिनाकी मोरे
बदलता कांवड़
कांवड़ यात्रा हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण यात्रा है, इसमें शिव के भक्तों का शिव के लिए त्याग , तपस्या , समर्पण और गज़ब की श्रृद्धा होती है और क्योंकि कांवड़ को कंधे पर रख कर सैकड़ों किलोमीटर पैदल ले जाना शारीरिक और मानसिक समर्पण को दर्शाता है इसलिए यह एक साधना भी है।
यह यात्रा सावन महीने में इसलिए आयोजित होती है क्योंकि सावन का महीना “शिव” का महीना कहा जाता है और वह इसलिए क्योंकि पौराणिक कथाओं के अनुसार सावन महीने में ही समुद्र मंथन की घटना हुई थी जिसमें देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया।
इस समुद्र मंथन के दौरान अमृत भी निकला और विष भी निकला। वह विष (हलाहल) किसी को नुकसान ना पहुंचाए इसलिए “शिव” ने उस विष को अपने कंठ में धारण किया, जिससे वह “नीलकंठ’ कहलाए और यही कारण है कि शिव को नीले रंग का दिखावा जाता है. अर्थात उनके शरीर में विष ही विष है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार इस विष की गर्मी को शांत करने के लिए देवताओं ने शिव पर गंगाजल चढ़ाया। समुद्र मंथन की इस कथा ने पवित्र जल को शिवलिंग पर चढ़ाने की परंपरा को प्रेरित किया, जो कांवड़ यात्रा का मूल आधार है। इसीलिए कांवड़िए गंगा जल लेकर शिव मंदिरों तक जाते हैं और वहां शिव का जलाभिषेक करते हैं।
पौराणिक कथाओं में धरती पर इसकी शुरुआत सबसे पहले “परशुराम’ ने की और उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर से कांवड़ में गंगाजल लाकर उत्तर प्रदेश के बागपत के पास बना पुरा महादेव का जलाभिषेक किया था।
यह परंपरा आज भी चली आ रही है और बड़ी संख्या में श्रद्धालु गढ़मुक्तेश्वर जो अब ब्रजघाट के नाम से जाना जाता है से गंगाजल लाकर पुरा महादेव का जलाभिषेक करते हैं।
इन्हें ही ‘कांवड़िए’ कहा जाता है, दरअसल कांवड़ एक बांस का डंडा होता है, जिसके दोनों छोर पर रस्सियों या कपड़े के सहारे दो बर्तन लटकाए जाते हैं। इन बर्तनों में जल भरा जाता है।
कांवड़’ शब्द संस्कृत के ‘कावड़’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है बांस का वह ढांचा जिसके दोनों सिरों पर बर्तन या वजन लटकाए जाते हैं।
संस्कृत में यह शब्द ‘कांध’ अर्थात कंधे से संबंधित है, क्योंकि यह कंधे पर रखकर ले जाया जाता है और शिवलिंग पर गंगा जल चढ़ाने के लिए ले जाया जाता है। इसकी संरचना संतुलन बनाए रखने में मदद करती है, जिससे भारी जल को लंबी दूरी तक ले जाना संभव होता है।
कांवड़ यात्रा कोई 2014 के या 2017 के बाद आयोजित हो रही हो ऐसा भी नहीं है, इसका इतिहास पौराणिक कथाओं के अनुसार हज़ारों लाखों सालो का है ….
सैकड़ों किलोमीटर दूर से पैदल कांवड़ लेकर चलते कांवड़ियों के पैरों के छाले , उन छालों पर कपड़े बांध कर कष्ट सहते हुए चलते जाना, उफ़्फ .. क्या तपस्या कि कोई देखे तो पिघल जाए… मानवता के कारण ही उनकी सेवा करने लगे।
मगर जैसे 2014 और 2017 के बाद देश में हिन्दू त्योहारों को राजनीतिक उपयोग में लाया गया तो उसका सबसे पहला उपयोग “कांवड़ यात्रा” में लाया गया और जो कांवड़ यात्रा त्याग है , तपस्या , श्रृद्धा ,भक्ति और शिव के प्रति शारीरिक और मानसिक समर्पण था उसकी जगह उद्दंडता और हिंसा के साथ साथ सांप्रदायिकता आ गई और कांवड़ियों को एक राजनीतिक टूल की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा।
अमृतकाल में कांवड़िए VVVVVIP बना दिए गए और 2017 के बाद तो उनके लिए सरकार बिछ गयी , सारा शासन प्रशासन बिछ गया, उनपर हेलिकॉप्टर से फूल बरसाए गए और इसका परिणाम यह हुआ कि 2018 में, सावन के महीने में, मंडुआडीह रेलवे स्टेशन पर एक पैसेंजर ट्रेन खड़ी थी उसपर एक कांवड़िया ट्रेन के इंजन में चढ़ गया और उसे लेकर भागा रेल प्रशासन ने किसी तरह, ट्रेन को रोकने के लिए ब्रेकर का इस्तेमाल किया और ट्रेन रोकी गई।
यह सरकार द्वारा कांवड़ियों के सामने बिछ जाने का परिणाम था , तमाम हाईवे यहां तक कि GT ROAD तक कांवड़ियों के लिए एक तरफ़ से बंद किए जाने लगे और उनके लिए बकायदा एक प्रोटोकॉल बनाकर उन्हें सुविधाएं दी जाने लगीं।
अच्छा है, इससे किसे आपत्ति होगी ? इतनी दूर यात्रा में उन्हें सुरक्षा दी जाए, उनके खाने ठहरने का प्रबंध किया जाए , रात्रि विश्राम के लिए जगह दिया जाए और दिया जाता रहा है, कांवड़ यात्रा के रास्ते पर लोग श्रृद्धानुसार करते ही रहें हैं।
मगर धार्मिक त्योहार के राजनीतिक इस्तेमाल के बाद जो नुकसान हुआ है वह सरकार का नहीं उस धर्म का हुआ है। उस सोच और विश्वास का हुआ है कि जिस शिव ने दूसरों को नुकसान से बचाने के लिए समुद्र मंथन से निकला विष पी लिया उनके भक्त कांवड़ यात्रा में उन्हें जल चढ़ाने के लिए अराजकता, उद्दंडता और हिंसा कर रहे हैं!कोई कार से अपने परिवार के साथ जा रहा है तो उस कार को तोड़ रहे हैं।.शिव ने तो ऐसा नहीं किए बल्कि सभी के दुःखों को ही हर लिए।
यह कौन सी तपस्या ? और यह सब हो रहा है सरकार द्वारा उनका मन बढ़ाने से , जब मुख्यमंत्री, और डीजीपी खुद इनके सामने बिछे रहेंगे तो उनका तो मन बढ़ेगा ही और इसीलिए कांवड़ियों में बहुत से लोग “मनबढ़” हो गये.हर रोज़ हिंसा, तोड़फोड़ और अराजकता।
आप इतिहास में जाएं तो कांवड़ यात्रा मुग़लिया दौर के पहले से चली आ रही है और मुग़ल से लेकर ब्रिटिश हुकूमत तक कांवड़ियों पर कोई ख़तरा नहीं था ना कांवड़ियों की अराजकता का कोई उदाहरण है।
यहां तक कि 1947 से 2014 तक केंद्र में अलग अलग सरकारें आई 2017 के पहले उत्तर प्रदेश में अलग-अलग सरकारें आईं और इस दौरान कांवड़ियों पर ना कोई ख़तरा था ना इस यात्रा में उनकी उद्दंडता का कोई उदाहरण।
नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ हिंदुत्ववादियों के सबसे बड़े चेहरे हैं और इनकी सरकार बनते ही हिंदू और हिंदू धर्म खतरे में आ गया और वह अपने धर्म को बचाने के लिए इतना उग्र हो गया कि उसका कोई धार्मिक त्यौहार बिना सांप्रदायिक हिंसा के कहीं हो ही नहीं पाता…
कांवड़ यात्रा रूट पर उसे मुसलमान नहीं चाहिए, उसका आधार चेक होगा , उसका लिंग चेक होगा , दशहरा और रामनवमी के जुलूस के रास्ते में उसे मस्जिद चाहिए और होली के हुड़दंग में मस्जिद में रंग फेंकने की स्वतंत्रता चाहिए, गंदे और भड़काऊ गाने उनके धार्मिक त्योहारों में बजने चाहिए।
दरअसल यह सब नुकसान उस धर्म का है , मुसलमानों का नहीं, जो धर्म हज़ारों साल से अपने जिस चरित्र के साथ सफलतापूर्वक माना जा रहा है उसमें उद्दंडता और हिंसा लाकर उसका वह चरित्र बदला जा रहा है जिसका खामियाजा उस धर्म को आने वाले समय में भुगतना पड़ेगा।
समय इसका साक्षी होगा.कि शिव के विष को ठंडा करने के लिए सरकारी संरक्षण में हजारों हज़ारों को मारा पीटा गया.. उन्हें शारीरिक, मानसिक और आर्थिक कष्ट दिया गया। मुसलमानों को खलनायक बनाकर प्रताड़ित किया गया।