हर जानदार को मौत का मजा चखना है ,जबकि मौत जिस्म को आती है किरदार को नही!
मौत जिस्म को आती है किरदार को नहीं
मुस्लिम नौ जवानों की अक्सरियत हज़रत उमर रजि. को याद करती है सलाउद्दीन अयूबी को याद करती है , इन लोगों को समझना चाहिये कि इन लोगों ने अपना काम किया और अपने मालिक से जा मिले, क्यों कि यहाँ हमेशा के लिये कोई नहीं आया ।
हर नफ़्स को मौत का मज़ा चखना है हर जिस्म को फना होना है सलाहुद्दीन रह. को भी मौत आई और जिस्म उनका भी फ़ना हो गया इस हक़ से किसी को इख़्तलाफ हो ही नही सकता।
तो इख़्तलाफ इस बात से भी नही होना चाहिए कि मौत जिस्म को आती है किरदार नही मरता बस कैद होकर रह जाता तारीख के पन्नो में ठीक वैसे ही जैसे जेहन में उभरा अक्स।
जिस तरह जेहन में उभरे अक्स को बेपर्दा करने के लिए कैनवास एक जरिया है ठीक वैसे ही किरदार को पसमंजर करने के लिये एक जिस्म की जरूरत है।
एक ऐसा जिस्म जिस्मे वो किरदार समा जाए और देखते ही देखते वो किरदार फिर से जी उठे।
सलाहुद्दीन को भी जिंदा होने के लिए एक जिस्म की जरूरत है एक ऐसा जिस्म जिसमे सलाहुद्दीन के किरदार को बसा लेने की कूवत हो उसके अज़्म को उठ लेने की ताकत हो।
ऐ सलाहुद्दीन अय्यूबी से अकीदत रखने वालों अपनी बेबसी पे उसे पुकारने वालों सलाहुद्दीन का जिस्म फ़ना है किरदार कैद है अगर उसे वापस जिंदा करना है तो वो जिस्म पैदा करो जिसमे वो किरदार समा जाए और एक बार फिर सलाहुद्दीन अपने ताक़त अपनी हिकमत से दुश्मन के सफों को चीरते हुए हक़ का अलम बुलंद कर दे ।
लेकिन तुम तो अपनी नमाज़ो तक से गाफिल हो, बहन बेटियों के हक़ भी खा जाते हो, तुम्हे तो जहेज में कार चाहिये शादियों में बेहयाई चाहिये, तुमने तो उम्मत के कोन्सेप्ट को ही खत्म कर दिया तुम तो दीनदार की जगह बिरादरी को तर्जीह देते हो, हज इस लिए करते हो कि मकान की नेम प्लेट पर हाजी लिख सको, और बात करते हो सलाउद्दीन की, तो मेरे भाई बातों से काम नहीं चलता अमल चाहिये जिसमें दिखावा न हो, अगर हालात दुरुस्त करना चाहते हो तो मोमिन बनो फिर यकीनन सलाउद्दीन पैदा होगें इन’शा अल्लाह (रहमतुल्लाहि अलैह)
संवाद
मो अफजल इलाहाबाद