यहां जंग से कुछ पहले ही मुसलमान फकीर व हिंदू सन्यासी हथियार समेत अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध का खोल चुके थे मोर्चा, जाने कौन थे इस विद्रोह के फकीर एवं सन्यासी नेता?

एमडी डिजिटल न्यूज चैनल और प्रिंट मीडिया

ब्यूरो

मो अफजल इलाहाबाद

बक्सर के युद्ध से कुछ पहले ही मुसलमान फकीर और हिंदू संन्यासी हथियार लेकर अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध का मोर्चा खोल चुके थे।
फकीर एवं संन्यासी विद्रोह के नेता थे मजनू शाह मदार।

बतादे कि मजनू शाह कानपुर के रहने वाले एक सूफी थे और उनको बीरभूम के एक सूफी, हमीदुद्दीन ने कहा था कि तुम संन्यासियों के साथ गठजोड़ करके अंग्रेजों से लड़ो, और उनका खजाना और चावल लूट कर गरीबों में बाँट दो।

इसके बाद मजनू शाह के नेतृत्व में हजारों फकीर और संन्यासियों ने अंग्रेज और उसके पिठ्ठू जमींदारों के खजाने लूटे और गरीबों में बाटें। ढाका से लेकर पटना तक जगह-जगह अंग्रेजों के साथ जंग छेड़ी जिसमें अंग्रेजों को अपने कई अफसर और फौजी खोने पड़े।.

1786 में मजनू शाह की मौत के बाद विद्रोह की कमान मूसा शाह के हाथ में आई। लगभग 1800 तक चली ये जंग आज इतिहास की किताबों से नदारद कर दी गई है। ये विद्रोह न केवल मुसलमानों का आजादी की जंग में गवाह है, बल्कि हिंदु-मुस्लिम एकता का प्रतीक भी है।

अंग्रेजों ने बर्बरता से इस विद्रोह को खत्म किया, लेकिन हिन्दुस्तानियों की आजादी की ललक को खत्म न कर सके। अभी इस विद्रोह को खत्म हुए कुछ बरस भी न गुजरे थे कि सय्यद अहमद बरेलवी, हाजी शरीयतुल्लाह और टीटू मीर ने बगावत का बिगुल बजा दिया। सय्यद अहमद ने उत्तर प्रदेश से बिहार होते हुए कलकत्ता और मुंबई होते हुए अफगानिस्तान तक का दौरा करके हजारों अनुयायी बनाये। उनको अंग्रेज हुकुमत के नुकसान बताये।

मराठों से गठजोड़ की कोशिशें कीं और अंग्रेजों से युद्ध किये। 1831 में उनकी मौत के बाद पटना के इनायत अली और विलायत अली ने इस विद्रोह की कमान संभाल ली। भारत अफगानिस्तान की सीमा पर इन्होंने कबाइलियों को इकठ्ठा कर के अंग्रेज फौज के साथ युद्ध किये।

हजारों अंग्रेजों का नुकसान इन युद्धों में हुआ. 1852 और 1853 में जगह-जगह हिंदुस्तानी सिपाहियों को इसलिये सजा दी गयी कि वे इस विद्रोह के मौलवियों के कहने पर बगावत को तैयार हो गए थे।
1857 में जब विद्रोह का बिगुल बजा, तो सबसे पहले पटना में इस विद्रोह के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।

हाजी शरीयतुल्लाह और उनके पुत्र दूदू मियां ने बंगाल में किसान और आम जनमानस के साथ मिलकर अंग्रेज और उनके जमींदारों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। उनको फरायजी कहा गया। जगह-जगह इन लोगों ने अंग्रेजों से लोहा लिया।

टीटू मीर ने भी बंगाल में गरीब किसानों के साथ एक सेना का गठन कर अंग्रेजों से युद्ध छेड़ दिया था। कुछ इलाकों में तो, इन्होंने अपनी अदालत तक कायम कर ली थी। 1831 में एक युद्ध के दौरान टीटू शहीद हो गए और इनके सैकड़ों साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। गुलाम मासूम जो कि टीटू के सेनापति थे फांसी पर चढ़ा दिए गये।

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