नमाज पढ़ने वाले जरा इस ओर भी ध्यान दे कि नमाज़ पढ़ने और अदा करने में जमीनों आसमान का अंतर है जानिए पूरा खुलासा

संवाददाता एवं ब्यूरो

मस्जिद हो ईदगाह या घर हो जहां भी हम रोज खुदा की इबादत समझकर नमाज पढ़ते है,
नमाज़ पढ़ने और नमाज़ कायम करने में ज़मीन आसमान का फ़र्क है, नमाज़ पढ़ने का मतलब है पांच वक़्त ख़ुदा के सामने हाज़िर होना और कयाम, रुकु, सजदा और कायदा करना है।

नमाज़ कायम करने का मतलब है उस रस्मी नमाज़ की रूह को पूरी ज़िंदगी इंफिरादी व इजतिमाई सतह पर नाफिज़ करना है। कभी मखलूक की भलाई के लिए खड़े हो जाना, कभी अपनी ख्वाहिशात कुर्बान करते हुए उसके हुक्म के आगे झुक जाना, कभी अपनी अकड़ को फ़ना करते हुए आजज़ी व इंकसारी से सजदा रेज़ हो जाना, तो कभी बैठ कर अपनी मुश्किलात में ख़ुदा को पुकारना। ये नमाज़ कायम करने का मफ़हूम है।

नमाज़ पढ़ना ख़ुदा को मख़्सूस अवकात में याद करना है। जबकि नमाज़ कायम करना ख़ुदा को हम वक़्त याद करना है। नमाज़ पढ़ना चंद पलों में ख़ुदा के हुक्म को मानना और नमाज़ कायम करना हम वक़्त ख़ुदा के आगे तस्लीम व रज़ा का रोया इख्तियार करना। नमाज़ पढ़ना मख़्सूस अवकात में फहश और मुंकिर बातों से रुक जाना और नमाज़ कायम करना हम वक़्त फहाशी व मुनकिरात से बचते रहना।

नमाज़ पढ़ना बंदगी के कानून को मख़्सूस व मस्जिद तक मानना है और नमाज़ कायम करना कानून ए बंदगी को मस्जिद के बाहर दफ्तर, घर, बाज़ार, कारोबार, मोबाइल हर जगह पर लागू करना है। मुबारक हैं वो जो सिर्फ नमाज़ ही नहीं पढ़ते बल्कि बड़ी पाबंदी से अपने रब को दिल में बिठाकर नमाज़ कायम भी करते हैं।

संवाद;मो अफजल इलाहाबाद

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