जरा याद करो मुरादाबाद ईद गाह 13अगस्त1980 की घटना एक काला धन, जानिए क्या हुआ था इस दिन?
एमडी न्यूज चैनल टीम
ब्यूरो चीफ मो अफजल इलाहाबाद
FBP/107/2023
ज़रा याद कीजीए:- मुरादाबाद ईदगाह – 13 अगस्त 1980 की घटना को
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने 43 साल बाद 13 अगस्त 1980 को हुए मुस्लिम नरसंहार पर रिपोर्ट पेश कर दी है। जिसमें कहा गया है कि जांच पैनल की 1983 की जांच रिपोर्ट में कहा गया है कि इस दंगों में आरएसएस-बीजेपी इसमें शामिल नहीं थी।
मूल रूप से 1983 में उत्तर प्रदेश सरकार को सौंपी गई जस्टिस मथुरा प्रसाद सक्सेना रिपोर्ट के अनुसार, इस गड़बड़ी के लिए आम मुस्लिम और हिंदू भी ज़िम्मेदार नहीं थे।
1980 के मुरादाबाद दंगे दो मुस्लिम नेताओं की करतूत थी और इसमें न तो आरएसएस और न ही भाजपा (अप्रैल 1980 में स्थापित) शामिल थी। आयोग ने उन आरोपों को भी खारिज कर दिया कि स्थानीय पुलिस ने हिंसा के दौरान अंधाधुंध गोलीबारी को कथित तौर से अंजाम दिया था ।
इस रिपोर्ट के लिए जस्टिस सक्सेना और यूपी सरकार को धन्यवाद।
आज इस घटना का वही यह 13 अगस्त का मनहूस दिन है , यह आज से ही ठीक 43 साल पहले की घटना है। आज ही के दिन 13 अगस्त 1980 को 30 दिन भूखे प्यासे रोज़ा रहने के बाद लाखों मुसलमान नये कपड़े और इत्र की खूशबू भरे कपड़े पहने ईदगाह में नमाज़ अदा करने हमेशा की तरह खुशियों और उल्लास से भरे हुए मुरादाबाद की ईदगाह में इकट्ठा हो गए थे । दो दिन बाद ही 15 अगस्त आने वाला था। तो खुशियाँ दो गुनी थीं।
गौर तलब है कि मुरादाबाद की ईदगाह में ईद के उस दिन सब कुछ नॉर्मल था , ईद की नमाज़ हो चुकी थी , ईदगाह की मिंबर पर इमाम-ए-शहर हकीम सैय्यद मासूम अली आज़ाद खुतबा पढ़ रहे थे कि लाखों नमाज़ियों से भरी ईदगाह के चारों तरफ अचानक पीएसी लगाई जाने लगी।
किसी को बस यह समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों कर हो रहा है? पीएसी से ईदगाह घेरने की वजह क्या है ? मगर मुरादाबाद ईदगाह को चारों तरफ़ से पीएसी के जवानों ने घेर लिया था।
खैर , बेपरवाह नमाज़ियों ईद की नमाज़ के बाद खुतबा सुनते रहे कि ईदगाह में अचानक सुअर घुस आए जबकि गेट पर और ईदगाह के चारों तरफ पीएसी की तैनाती थी।
तो फिर यह कैसे हो गया ? जिसकी वजह से मामूली वाद-विवाद होने लगा और गेट पर ही पिछली कतार में नमाज़ पढ़ रहे नमाज़ियों ने पीएसी से सवाल जवाब शुरू किया कि ईदगाह से लेकर उसके गेट पर मौजूद पुलिस बल के बावजूद नमाज़ पढ़ रहे नमाज़ियों के बीच सुअर कैसे घुस गये ?
नमाज़ की पिछली कतार में मौजूद कुछ लोगों और पीएसी के बीच बातचीत चल ही रही थी कि पीएसी सशत्र बल अचानक पीछे हटा और सीधे ईदगाह की तरफ बंदूकों का रुख कर फायरिंग शुरू कर दी और जलियाँवाला कांड दोहरा दिया गया , धड़ाधड़ एक के बाद एक नमाज़ियों की लाशें ईदगाह में गिरने लगीं।
इमाम-ए-शहर हकीम सैय्यद मासूम अली आज़ाद के अनुसार घायल ज़िंदा मुर्दा सभी लोगों को पीएसी की ट्रकों में भर भर कर गायब कर दिया गया, उनमें तमाम लोगों की सांसें चल रहीं थीं और फ़िर ईदगाह से एक ट्रक भर कर खून से सने जूती चप्पलों को उठाया गया।
इसकी तुलना जलियाँवाला बाग से करें तो वहाँ भी सैंकड़ों लोग बैसाखी के दिन एकत्रित हुए थे और जनरल डायर की कमान में सेना ने लोगों पर फायरिंग कर दी जिससे लगभग 400 लोग मारे गए थे।
समानताएँ यहाँ समाप्त नहीं होती हैं, दोनों ही मामलों में, पीड़ितों के पास बाहर निकलने का सिर्फ एक ही दरवाज़ा था और दरवाजे के अंदर मौजूद लोगों को चुन चुन कर गोलीयो से निशाना बनाया गया।
ईदगाह में ईद की नमाज़ पढ़ रहे नमाज़ियों पर फायरिंग के बाद कोई नहीं जानता कि कितने लोग मारे गए? मगर यह ज्ञात है कि मुरादाबाद में हुई घटना हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं था, बल्कि सुनियोजित ढंग से पुलिस बल द्वारा किया गया मुसलमानों का कत्लेआम था जिसे हिंदू-मुस्लिम दंगा नामक टॉपिक से कवर करने की कोशिश की गई।
उस वक़्त के सांसद सैयद शहाबुद्दीन ने मुरादाबाद को स्वतंत्र भारत का जलियाँवाला बाग़ कहा था। हकीकत यह है कि धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस का अतीत सबसे अधिक रक्तरंजित रहा है और मुसलमानों का कत्ल सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करके सबसे अधिक उसी की सरकारों ने किया।
तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी पुलिस बल को प्रोत्साहन देकर तरफदारी की थी और आरोपों को खारिज करते हुए गांधी का जवाब था, पुलिस के आयुक्त और महानिरीक्षक को इस आरोप का कोई सबूत नहीं दिखा कि आमतौर पर पुलिस बेकाबू हो चुकी थी!
मुरादाबाद में 1980 की भयावह पुलिस ज़्यादतियों को दरकिनार करते हुए इंदिरा गाँधी ने इसे सरकार को कमजोर करने की साजिश करार दिया था।
इंदिरा गांधी ने आगे 1983 के मेरठ दंगों में मुस्लिम-विरोधी के रूप में कुख्यात यूपी पीएसी का बचाव करते हुए उस पर लगाए गए विस्तृत आरोपों को लेकर खेद जताया था।
ध्यान देने लायक बात है कि उत्तरप्रदेश में हुए तब तक 29 दंगों में से 13 में यूपी पीएसी पर मुसलमानों के नरसंहार का आरोप लगा था।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और तत्कालीन मुख्यमंत्री वीपी सिंह की सरकार और कांग्रेस ने इस दंगे के लिए पुलिस के बजाए मुसलमानो को ही कसूरवार ठहराया और यह आरोप लगाया कि ईदगाह के अंदर से मुसलमानों ने पीएसी पर फायरिंग की।
इसके लिए भाँड मीडिया का सहारा लिया गया। खासकर “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” ने भी गोदी मीडिया की तर्ज पर अपनी रिपोर्टिंग में कहा था कि मुसलमानो के पास हथियार थे और उन्होंने पीएसी पर ज़बरदस्त हमला किया था।
सोचिएगा कि ईद की नमाज़ कौन हथियार लेकर पढ़ने जाता है क्या ?
बाद में इसे पीएसी-मुसलमान की जगह हिन्दू-मुस्लिम दंगे का रूप दिया गया और कई दिनों तक मुरादाबाद को मुसलमानों के खून से तर बतर किया गया। अंदाजन 400 लोग मारे गये।
दरअसल इंदिरा गाँधी को गुमराह करने के लिए वीपी सिंह ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया से मदद ली और प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को असलियत का पता लगे इसलिए वीपी सिंह ने फटाफट टाइम्स ऑफ़ इंडिया के अपने एक खास पत्रकार से संपर्क किया और झूठी खबर प्रकाशित कराई।
वामपंथी रोमिला थापर के भाई रोमेश थापर ने भी तब एक नई थ्योरी गढ़ी और उन्होंने कहा कि मुसलमानो को भारत में अस्थिरता फैलाने के लिए सऊदी अरब से आर्थिक सहायता मिली जिसके नतीजे में कई दिन तक मुरादाबाद में खूनी खेल चलता रहा।
तब सिर्फ सैय्यद शहाबुद्दीन ऐसे नेता रहे जिन्होंने कहा कि पुलिस ने मुसलमानो पर खुलकर गोली चलाई जबकि नमाज़ के वक़्त किसी भी मुसलमान के पास कोई हथियार नहीं थे।
प्रत्यक्षदर्शी पत्रकार हिसामुल इस्लाम सिद्दीकी बताते हैं कि नमाज़ियों की पीएसी वालों से शिकायत केवल सुअर के ईदगाह में घुसने को लेकर थी और फिर पीएसी ने पूरे ईदगाह को घेर कर निहत्थे नमाज़ियों पर फायरिंग की तब लाशों के ढेर लग गए थे।
ईदगाह में पुलिस फायरिंग के बाद मुख्यमंत्री वीपी सिंह ने उसी रात यूपी के दो कैबिनेट मंत्री अब्दुर रहमान नश्तर और जगदीश प्रसाद को मौके पर भेजा।
मौके का हाल लेकर लखनऊ लौटे दोनों मंत्रियों को वीपी सिंह ने अगले दिन अपनी प्रेस कान्फ्रेन्स में बैठाया।
पत्रकार हिसामुल इस्लाम सिद्दीकी के अनुसार वह भी प्रेस कांफ्रेंस कवर कर रहे थे और वीपी सिंह ने अपनी सरकार और पुलिस को बचाने के लिए ईदगाह में मुसलमानों के आपसी झगड़े की नयी थ्योरी गढ़ी तभी कैबिनेट मंत्री अब्दुर रहमान नश्तर ने प्रेस कांफ्रेंस के बीच में खुलासा किया कि मामला PAC जवानो की फायरिंग से भड़क गया था।
कैबिनेट मंत्री अब्दुल रहमान नश्तर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुबूल किया कि मामूली झगड़े में पुलिस ने लाशें बिछा दीं और यह स्वतंत्र भारत का “जालियाँवाला बाग” था। नश्तर ने आगे कहा कि मौके पर फैसला लेने वाला कोई जिम्मेदार अफसर नहीं था। उन्होंने सारा दोष PAC जवानो पर मढ़ दिया।
नश्तर के कड़वे सच से वीपी सिंह तिलमिला गए और उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस वहीँ खत्म कर दी। कुछ देर बाद वीपी सिंह ने दोनों मंत्री-अब्दुर रहमान नश्तर और जगदीश प्रसाद को उत्तर प्रदेश सरकार से बर्खास्त कर दिया।
उसी रात इंदिरा गाँधी ने फ़ोन पर नश्तर से बात की और जब उन्हें असलियत पता लगी तो नश्तर को दिल्ली बुला लिया।
वीपी सिंह सच को दबा रहे थे , टाईम्स आफ इंडिया के सहारे झूठी कहानी गढी जा रही थी लेकिन उनके ही दो मंत्रियों ने पुलिस फायरिंग की असलियत बता दी।
तब टाइम्स ऑफ़ इंडिया की तूती बोलती थी और इंदिरा गाँधी भी अख़बार का संज्ञान लेती थीं। इसलिए वीपी सिंह ने लखनऊ के मशहूर पत्रकार विक्रम राव को हेलीकाप्टर से मुरादाबाद भेजा।
राव ने लौटकर नई कहानी छापी। उन्होंने लिखा कि सऊदी अरब के पेट्रो डॉलर की कमाई दंगे के पीछे अहम वजह थी। सऊदी की आर्थिक सहायता से ही मुरादाबाद के कुछ मुसलमानो तक हथियार पहुंचे जिसके कारण इतनी बड़ी हिंसा हुई।
ये कहानी इंदिरा गाँधी ने भी पढ़ी और कुछ दिन के लिए वीपी सिंह की कुर्सी बच गयी।
इस बीच पुलिस फायरिंग के बाद मुरादाबाद में हिन्दू-मुस्लिम दंगे शुरू हो गए। इन दंगो के कारण ईदगाह की पुलिस फायरिंग से लोगों का ध्यान हट गया।
बाद में इंदिरा गाँधी ने केंद्रीय मंत्री पी शिव शंकर और सी के ज़ाफ़र शरीफ को मुरादाबाद भेजा। उसके बाद इंदिरा गाँधी खुद मुरादाबाद गयी परन्तु जब तक उन्हें सारी हकीकत पता लगती तब तक काफी देर हो चुकी थी।
आज़ाद भारत की इस सबसे डरावनी पुलिस फायरिंग काण्ड को दफन कर दिया गया जिसे जालियाँवाला बाग की तर्ज पर अंजाम दिया गया। फिर एक सोची समझी रणनीति के तहत मुरादाबाद दंगो की जांच इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज एमपी सक्सेना के सुपुर्द कर दी गयी।
जस्टिस सक्सेना इस जांच के लिए कांग्रेस के ‘कोल्ड स्टोरेज’ इंचार्ज थे जो मामले को लीपापोती करके ठंडे बस्ते में डाल दिया करते थे और इस भयावह नरसंहार को भी उसी अंजाम तक पहुंचा दिए।
वही जांच रिपोर्ट योगी सरकार ने 40 साल बाद विधानसभा में पेश करके सबको क्लीन चिट दिला दी।
भारत में काँग्रेसी सरकारों ने जितना मुसलमानों का खून बहाया उतना तो किसी सियासी पार्टी ने नहीं बहाया और ना इसकी जांच हुई ना एक रूपए का किसी को मुआवजा और भत्ता दिया गया?
हालांकि 1984 के लिए सिख पीड़ित और काश्मीरी पंडित आज तक मुआवजा भत्ता और कोटा पाते रहते हैं। बहुत मुश्किल है हिन्दोस्तां में मुसलमां होना!