एक तरफ दो जून की रोटी रोज़ी का प्रश्न तो दूसरी ओर खेला ही खेला

विशेष
संवाददाता

दो जून की रोटी का सवाल और खेला ही खेला

जिस देश के 80 करोड़ लोग राशन की दुकान से मिलने वाले अनाज पर निर्भर हों उस देश में सिंदूर का खेला और उसका जश्न शोभा नहीं देता।

भोपाल में जिस तरह सिंदूरी आभा में आपरेशन सिंदूर का यशगान हुआ। उससे उन खबरों का धुआं उड़ाने की पुरज़ोर कोशिश हुई जो हमारे सैन्य अधिकारी लगातार बता रहे हैं। सेना के जवानों की मौत और हुए नुकसान की कोई चर्चा नहीं। सीमावर्ती गांवों में बेवजह हलाक हुए लोगों की गिनती भी अब तक नहीं हुई। उन पायलटों के नाम भी सामने नहीं आए जिनके युद्धक विमान पाकिस्तान ने मार गिराए। ना ही एक भी मशहूर आतंकी का नाम सामने आया।

कैसे आता? जब ख़बर देकर आतंकी ठिकानों पर हमला हुआ हो। सच तो ये है आतंकी एक भी नहीं मरा हां आतंकियों की स्त्रियां बच्चे और वहां के लोग ही मारे गए। ट्रम्प के कहने पर सीज़ फायर। यानि देश की अवाम ही नहीं देश की सेना को जबरन गुमराह किया। उधर मोदी मीडिया जो बंद पिटवाई उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। फिर भी आत्म प्रशंसा की लगातार गूंज। यह सिंदूर के नाम पर सचमुच बड़ा खेला हुआ है। दिन बादिन रहस्य खुलते जा रहे हैं।

बहरहाल ज़रूरी सवालों से भाग कर जो कुछ इस वक्त चल रहा है वह एक मनोरंजन की तरह है भोपाल में इस वक्त जो खुशी देखी गई वह विचलित करने वाली है। जब देश बढ़ते रोजगार, महंगाई की मार से बीमार है उसे दो जून की रोटी के लिए तरसना पड़ रहा हो तो उसे इस मनोरंजन से सहलाया नहीं जा सकता। महिला कर्मियों को सिंदूरी बनाम भगवा पोशाक पहनाकर,जय जयकार से अभिनंदन करवा के कहीं भविष्य में इस ड्रेस कोड को महिलाओं को पहनने के लिए मज़बूर ना कर दिया जाए। जैसे धीरेन्द्र शास्त्री प्लाट खाली की बात करते हैं।

सुहागिनों की पहचान सिंदूर बना दी जाए। क्योंकि आजकल बहुतेरी हिंदू सुहागिन महिलाएं सिंदूर नहीं लगातीं। खासतौर से आदिवासी, ईसाई और मुस्लिम महिलाएं। आजकल उच्च पदों पर पदस्थ महिलाओं के साथ सेना, बीएसएफ, होमगार्ड, पुलिस में कार्यरत महिलाएं भी आमतौर पर सिंदूर का उपयोग कभी-कभार ही करती हैं। इसे आपरेशन सिंदूर नाम देना भी साम्प्रदायिक और अनुचित था। हम सब अब तो भली-भांति समझ ही चुके हैं यह तमाशा बहुसंख्यक हिंदू महिलाओं की वोट की खातिर ही रचा गया। बाकी इससे कहीं किसी को कोई फायदा नहीं पहुंचा। उल्टे देश को भारी जन-धन की हानि हुई है।

फिलहाल इस जबरदस्त खेला के भोपाल में जिन दो क्षेत्रों में हवाई सेवा और मेट्रो ट्रेन का वर्चुअल उद्घाटन हुआ उससे भी भूखे को रोटी मिलने वाली नहीं है।
आखिरकार हम कब तक इन खोखले इवेंट को देखकर जय जयकार के शोर में डूबे रहेंगे? तन्द्रा त्यागिए और देखिए हमारा देश किन ऊंचाइयों पर था और किस गर्त में चला जा रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था खोखली हुई जा रही है। विदेश नीति को मुंह की खानी पड़ी है सैन्य आपरेशन के बाद देश की ऐसी हालत हो गई है कि किसी देश ने भारत के इस अभियान को नहीं सराहा, उल्टे भारत की तौहीन करते हुए उसे सीज़फायर करने के लिए बाध्य किया। हमारे देश के मामले में अमेरिका का ये दख़ल और उसको मान लेना भारत सरकार की कमज़ोरी साबित करता है। जबकि अमेरिका की आयात और निर्यात पर टैरिफ की दहशत एक बड़ी चुनौती बन गयी है।

कहने का आशय यह है कि ना हम घर के रहे ना घाट के। देश के अंदर की भयावहता और भी अधिक डरावनी है। लोगों के पास काम नहीं है, महंगाई लोगों का दम उखाड़ रही है। महंगी शिक्षा हो गई है। विदेशी सस्ती शिक्षा पर भी विराम लगता नज़र आ रहा है। नैतिकताएं अब बीते कल की बात हो गई हैं। चारों ओर लूट और झूठ का बोलबाला है। प्रतिपक्ष नेता राहुल गांधी जो सच पर अवलंबित राजनीति कर रहे हैं उन पर आए दिन तलवार लटका दी जाती है। समूचा विपक्ष भी आज विश्वसनीय नहीं रहा कब कौन किस करवट बैठ जाए, कहा नहीं जा सकता।

ऐसे डरावने दौर में जब हमारा देश बहुत बुरे दौर से गुज़र रहा है तब जनता जनार्दन के बीच देश और जन हितैषी लोगों का दायित्व बढ़ जाता है कि वे सरकार की कथनी-करनी से अवाम को परिचित कराएं और देश के लिए मर मिटने के लिए तैयार रणबांकुरे चंद साथियों की शक्ति को संबल दें। ताकि देशवासी सुरक्षित भविष्य की पहचान कर सकें। उन्हें राशन की भीड़ में शामिल ना होना पड़े ना ही वे दया की भीख के मोहताज हों। धरती पर मौजूद तमाम लोगों के साथ भारत की इस 80 करोड़ आबादी का हक बनता है कि वे सुकून से दो जून की रोटी आसानी से खुद बा खुद अपने काम से पा सकें। वरना इस तरह तरह के खेला में हम ताली पीटते और जय-जयकार करते अपने मूलभूत रोटी के हक से ऐसी ही वंचनाओं में हमेशा, वंचित रहेंगे।

सुसंस्कृति परिहार लेखिका और एक्टिविस्ट हैं।

संवाद;पिनाकी मोरे

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