आजाद भारत में ऐसा भी एक हैवानियत वाला कांड जिसे छुपाने के लिए दंगाइयों ने ये प्लैन किया

भागलपुर

संवादाता

24 अक्टूबर 1989 को शुरू हुआ यह हैवानी खेल 15 जनवरी 1990 तक बदस्तूर जारी रहा।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस शर्मसार कर देने वाली घटना में 1123 लोगों का कत्ल-ए-आम हुआ था।
परंतु गैर-सरकारी आंकड़ों के अनुसार कम-से-कम दो हजार लोगों का खून, पानी की तरह सड़कों पर बहा था। वहां के स्थानीय लोग बताते हैं कि गंगा की धारा लाल हो गई थी।
ऐसी बातें हालांकि कल्पना और मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचने से उत्पन्न दर्द के तौर पर अभिव्यक्ति पा जाती हैं।
इसलिए इसे तथ्य न मानकर भयावह स्मृति के फलस्वरूप उठती हुई टीस के रूप में महसूस किया जाना चाहिए।
दंगे में मारे गए लोगों के सही आंकड़े पूछे जाने पर विशेष लोक अभियोजक कमरुल रहमान कहते हैं कि तत्कालीन आयुक्त की रिपोर्ट में 19 सौ से अधिक लोगों के मरने की बात कही गई थी।
भागलपुर के एक न्यायालय ने 18 जून 2007 को एक फैसला सुनाया था, जिसमें 14 लोगों को दोषी ठहराया था। इसी फैसले को आगे बढ़ाते हुए 7 जुलाई 2007 को अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश एसएन मिश्र के फैसले के अनुसार 14 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुना दी गई है।
यह फैसला लौंगाय, भागलपुर में 116 मुस्लिमों की हत्या के संदर्भ में आया। दंगे के दौरान लौंगाय में 116 लोगों की हत्या करके लाशों को जमींदोज कर दिया गया था।
अमानवीयता की हद तो यह है कि साक्ष्य छुपाने के लिए उस जमीन पर जिसके अंदर लाशें दफन की गई थीं, वहां गोभी के पौधे उगा दिए गए।
नरसंहार के 25 दिन के बाद जब आईएएस अधिकारी एके सिंह के नेतृत्व में टीम लौंगाय गांव पहुंची तो गोभी के खेत के ऊपर गिद्धों के झुंड मंडरा रहे थे।
एके सिंह ने खेत की खुदाई के आदेश दिए तो तत्कालीन एएसआई रामचंद्रसिंह ने उन्हें यह कहते हुए गुमराह करने की कोशिश की कि इसके लिए मजिस्ट्रेट के आदेश की जरूरत होगी। खुदाई के दौरान 116 लाशें वहां बरामद हुई थीं।
दंगे की आगोश में आये चंदेरी, भागलपुर की कहानी में पुलिस के सांप्रदायिक चरित्र के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं।
27 अक्टूबर 1989 को सेना ने चंदेरी में एक विशाल इमारत में सारे मुसलमानों को जमा होने और पुलिस को उनकी रक्षा करने को कहा, लेकिन सेना अगले रोज जब वहां पहुंची तो वहां कोई नहीं था। रात में ही पुलिस की मौजूदगी में साम्प्रदायिक भीड ने एक-एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी।
लाशों को तालाब में फेंक दिया गया। चंदेरी के 22 अभियुक्तों में मात्र 16 को दो साल पहले उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी।
दंगों के आरोपी अधिकारियों को सजा हुई या नहीं, इस पर कोई बताने को तैयार नहीं है। साक्ष्य के अभाव में या रसूख रखने वाले नेताओं की शागिर्दी ने उन पर आंच नहीं आने दी। मेजर ओमप्रकाश पर मुस्लिम समुदाय के 20 लोगों की हत्या का आरोप लगा था।
स्थानीय निवासी तथा विधायक चुनचुन यादव पर 12 मुस्लिमों की हत्या का आरोप लगा था। तब भी लालू प्रसाद यादव ने उन्हें अपनी पार्टी से चुनाव लड़ने का टिकट दिया।
लालू के कारनामों के कुछ और उदाहरण यहां पेश किए जाने जरूरी होंगे।
भागलपुर दंगाकांड में दोहरी भूमिका निभाने वाले पुलिस व प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों को सजायाफ्ता का जीवन मुकर्रर कराने की बजाय राज्य सरकार ने प्रोन्नति देकर उनको सम्मानित किया।
दंगे के समय भागलपुर के आरक्षी महानिरीक्षक (आईजी) दोहरा को लालू प्रसाद यादव ने राज्य की बागडोर संभालते ही प्रोन्नति देकर पुलिस महानिदेशक (डीजी) बना दिया।
आरक्षी अधीक्षक (एसपी) द्विवेदी को अवर आरक्षी महानिरीक्षक के तौर पर प्रोन्नति देकर सम्मानित किया गया।
मालूम हो कि मुख्‍यमंत्री बनने से पूर्व लालू ने अपने चुनावी गणित में भागलपुर दंगे को भी विशेष जगह देने की बात खुले तौर पर प्रचारित की थी।
उन्होंने चुनावी भाषण के दौरान घोषणा करते हुए कहा था- ‘दंगे से संबधित न्यायालय में चल रहे मामलों का फैसला राज्य सरकार के गठन के तीन माह के अंदर हो जाएगा।
लालू ने एमवाई समीकरण (मुस्लिम-यादव) की राजनीति का भरोसा देकर बिहार के इन पिछड़े समुदायों के मध्य अपना भरोसा जमाया था।
इस भरोसे का रंग इतना गहरा था कि उसे उतरते-उतरते वर्षों लग गए।
साक्ष्य जुटाने में नाकाम रही पुलिस के कारण सैकड़ों लोगों को आरोपों से बरी कर दिया गया। आरोपों से बरी या फिर रिहा हो चुके लोगों की संख्या 500 से ज्यादा है।
कुछ साल पहले स्थानीय अदालत द्वारा सुनाए गए एक फैसले में जिन 14 लोगों पर आरोप सिद्ध हुए हैं,
उनमें से ज्यादातर की माली हालत अच्छी नहीं है। सात लोग 60 की उम्र सीमा पार कर चुके हैं। एक दोषी 82 साल का है। तत्कालीन थाना प्रभारी रामचंद्र सिंह को मात्र दोषी ठहराया गया।
दंगा भड़काने के लिए मुख्‍य तौर पर तीन लोगों को भागलपुर की जनता दोषी मानती है।
ये हैं इनायतुल्ला अंसारी (क्रिमिनल), कथित माफिया महादेवसिंह और कामेश्वर यादव। इनायतुल्ला अंसारी और महादेवसिंह की मौत हो चुकी है।
हत्याओं, दंगा भड़काने और उसके बाद राज्यतंत्र की भूमिका पर कई गहरे सवाल उठाए जाते हैं लेकिन इन सवालों का जवाब सरकार कभी आम जनता को नहीं देना चाहती है।
आइए इसे कुछ उदाहरणों से जानने-समझने की कोशिश करते हैं-
भागलपुर के चंदेरी गांव की मलका बेगम की टांग काटकर दंगाइयों ने स्थानीय तालाब में फेंक दी थी।
कई लाशों के बीच जिंदगी और मौत से संघर्ष करती मलका बेगम को सेना के जवानों ने तालाब से निकाला। उसे अस्पताल में दाखिल करवाया गया।
उसके स्वस्थ्य होने के बाद सेना के एक जवान मोहम्मद ताज ने उससे शादी रचाई। ताज जम्मू-कश्मीर बटालियन में था। ताज की तैनाती दंगे के दौरान भागलपुर में थी।
राज्य और केन्द्र सरकार द्वारा एक लाख 10 हजार रुपए का मुवाअजा पाते ही ताज, मलका और उसके दो बच्चों को धोखा देकर फरार हो गया। 1993 में मलका ने उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज भी करवाया। आज तक कोई राहत उसे नहीं मिल पाई है।
दूसरा किस्सा शकीना का है। दंगे में उसके पति की हत्या कर दी गई थी।
अपने व बच्चों की जान बचाने के लिए बबुरा गांव से निकल भागने के बाद उसकी 44 बीघा जमीन पर गांव केआज़ाद भारत मे बिहार का सबसे बड़ा दंगा
कृपया पूरा पढ़ें ।
24 अक्टूबर 1989 को शुरू हुआ यह हैवानी खेल 15 जनवरी 1990 तक बदस्तूर जारी रहा।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस शर्मसार कर देने वाली घटना में 1123 लोगों का कत्ल-ए-आम हुआ था।
परंतु गैर-सरकारी आंकड़ों के अनुसार कम-से-कम दो हजार लोगों का खून, पानी की तरह सड़कों पर बहा था।
वहां के स्थानीय लोग बताते हैं कि गंगा की धारा लाल हो गई थी।
ऐसी बातें हालांकि कल्पना और मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचने से उत्पन्न दर्द के तौर पर अभिव्यक्ति पा जाती हैं।
इसलिए इसे तथ्य न मानकर भयावह स्मृति के फलस्वरूप उठती हुई टीस के रूप में महसूस किया जाना चाहिए।
दंगे में मारे गए लोगों के सही आंकड़े पूछे जाने पर विशेष लोक अभियोजक कमरुल रहमान कहते हैं कि तत्कालीन आयुक्त की रिपोर्ट में 19 सौ से अधिक लोगों के मरने की बात कही गई थी।
भागलपुर के एक न्यायालय ने 18 जून 2007 को एक फैसला सुनाया था, जिसमें 14 लोगों को दोषी ठहराया था।
इसी फैसले को आगे बढ़ाते हुए 7 जुलाई 2007 को अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश एसएन मिश्र के फैसले के अनुसार 14 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुना दी गई है।
यह फैसला लौंगाय, भागलपुर में 116 मुस्लिमों की हत्या के संदर्भ में आया।
दंगे के दौरान लौंगाय में 116 लोगों की हत्या करके लाशों को जमींदोज कर दिया गया था।
अमानवीयता की हद तो यह है कि साक्ष्य छुपाने के लिए उस जमीन पर जिसके अंदर लाशें दफन की गई थीं, वहां गोभी के पौधे उगा दिए गए।
नरसंहार के 25 दिन के बाद जब आईएएस अधिकारी एके सिंह के नेतृत्व में टीम लौंगाय गांव पहुंची तो गोभी के खेत के ऊपर गिद्धों के झुंड मंडरा रहे थे।
एके सिंह ने खेत की खुदाई के आदेश दिए तो तत्कालीन एएसआई रामचंद्रसिंह ने उन्हें यह कहते हुए गुमराह करने की कोशिश की कि इसके लिए मजिस्ट्रेट के आदेश की जरूरत होगी। खुदाई के दौरान 116 लाशें वहां से बरामद हुई थीं।
दंगे की आगोश में आये चंदेरी, भागलपुर की कहानी में पुलिस के सांप्रदायिक चरित्र के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं।
27 अक्टूबर 1989 को सेना ने चंदेरी में एक विशाल इमारत में सारे मुसलमानों को जमा होने और पुलिस को उनकी रक्षा करने को कहा, लेकिन सेना अगले रोज जब वहां पहुंची तो वहां कोई नहीं था।
रात में ही पुलिस की मौजूदगी में साम्प्रदायिक भीड ने एक-एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी।
लाशों को तालाब में फेंक दिया गया। चंदेरी के 22 अभियुक्तों में मात्र 16 को दो साल पहले उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी।
दंगों के आरोपी अधिकारियों को सजा हुई या नहीं, इस पर कोई बताने को तैयार नहीं है।
साक्ष्य के अभाव में या रसूख रखने वाले नेताओं की शागिर्दी ने उन पर आंच नहीं आने दी।
मेजर ओमप्रकाश पर मुस्लिम समुदाय के 20 लोगों की हत्या का आरोप लगा था।
स्थानीय निवासी तथा विधायक चुनचुन यादव पर 12 मुस्लिमों की हत्या का आरोप लगा था। तब भी लालू प्रसाद यादव ने उन्हें अपनी पार्टी से चुनाव लड़ने का टिकट दिया।
लालू के कारनामों के कुछ और उदाहरण यहां पेश किए जाने जरूरी होंगे।
भागलपुर दंगाकांड में दोहरी भूमिका निभाने वाले पुलिस व प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों को सजायाफ्ता का जीवन मुकर्रर कराने की बजाय राज्य सरकार ने प्रोन्नति देकर उनको सम्मानित किया।
दंगे के समय भागलपुर के आरक्षी महानिरीक्षक (आईजी) दोहरा को लालू प्रसाद यादव ने राज्य की बागडोर संभालते ही प्रोन्नति देकर पुलिस महानिदेशक (डीजी) बना दिया।
आरक्षी अधीक्षक (एसपी) द्विवेदी को अवर आरक्षी महानिरीक्षक के तौर पर प्रोन्नति देकर सम्मानित किया गया।
मालूम हो कि मुख्‍यमंत्री बनने से पूर्व लालू ने अपने चुनावी गणित में भागलपुर दंगे को भी विशेष जगह देने की बात खुले तौर पर प्रचारित की थी।
उन्होंने चुनावी भाषण के दौरान घोषणा करते हुए कहा था- ‘दंगे से संबधित न्यायालय में चल रहे मामलों का फैसला राज्य सरकार के गठन के तीन माह के अंदर हो जाएगा।
लालू ने एमवाई समीकरण (मुस्लिम-यादव) की राजनीति का भरोसा देकर बिहार के इन पिछड़े समुदायों के मध्य अपना भरोसा जमाया था।
इस भरोसे का रंग इतना गहरा था कि उसे उतरते-उतरते वर्षों लग गए।
साक्ष्य जुटाने में नाकाम रही पुलिस के कारण सैकड़ों लोगों को आरोपों से बरी कर दिया गया। आरोपों से बरी या फिर रिहा हो चुके लोगों की संख्या 500 से ज्यादा है।
कुछ साल पहले स्थानीय अदालत द्वारा सुनाए गए एक फैसले में जिन 14 लोगों पर आरोप सिद्ध हुए हैं,
उनमें से ज्यादातर की माली हालत अच्छी नहीं है। सात लोग 60 की उम्र सीमा पार कर चुके हैं। एक दोषी 82 साल का है।
तत्कालीन थाना प्रभारी रामचंद्र सिंह को मात्र दोषी ठहराया गया। दंगा भड़काने के लिए मुख्‍य तौर पर तीन लोगों को भागलपुर की जनता दोषी मानती है।
ये हैं इनायतुल्ला अंसारी (क्रिमिनल), कथित माफिया महादेवसिंह और कामेश्वर यादव।
इनायतुल्ला अंसारी और महादेवसिंह की मौत हो चुकी है।
हत्याओं, दंगा भड़काने और उसके बाद राज्यतंत्र की भूमिका पर कई गहरे सवाल उठाए जाते हैं लेकिन इन सवालों का जवाब सरकार कभी आम जनता को नहीं देना चाहती है।
आइए इसे कुछ उदाहरणों से जानने-समझने की कोशिश करते हैं- भागलपुर के चंदेरी गांव की मलका बेगम की टांग काटकर दंगाइयों ने स्थानीय तालाब में फेंक दी थी।
कई लाशों के बीच जिंदगी और मौत से संघर्ष करती मलका बेगम को सेना के जवानों ने तालाब से निकाला। उसे अस्पताल में दाखिल करवाया गया।
उसके स्वस्थ्य होने के बाद सेना के एक जवान मोहम्मद ताज ने उससे शादी रचाई।
ताज जम्मू-कश्मीर बटालियन में था। ताज की तैनाती दंगे के दौरान भागलपुर में थी।
राज्य और केन्द्र सरकार द्वारा एक लाख 10 हजार रुपए का मुवाअजा पाते ही ताज, मलका और उसके दो बच्चों को धोखा देकर फरार हो गया।
1993 में मलका ने उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज भी करवाया। आज तक कोई राहत उसे नहीं मिल पाई है।
दूसरा किस्सा शकीना का है। दंगे में उसके पति की हत्या कर दी गई थी।
अपने व बच्चों की जान बचाने के लिए बबुरा गांव से निकल भागने के बाद उसकी 44 बीघा जमीन पर गांव के कुछ दबंग सवर्णों ने खेती करना शुरू कर दिया। इसमें पूर्व मुखिया सदानंदसिंह भी शामिल था।
जिला न्यायाधीश और पुलिस अधीक्षक से सकीना ने इसकी शिकायत की, लेकिन उन्होंने इसे हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
प्रशासन के ऐसे सांप्रदायिक रवैये के परिणास्वरूप सदानंद का मनोबल बढ़ता चला गया और वह शकीना को कौड़ियों के दाम जमीन बेचने के लिए लगातार धमकाता रहा।
भागलपुर और उससे टूटकर बने नए जिलों के लगभग 275 गांवों में शकीना और मलका बेगम जैसे सैकड़ों भुक्तभोगी न्यायालय से आने वाले हर नए फैसले की ओर इस उम्मीद से निगाहें लगाए रहते हैं कि उन्हें न्याय देर-सबेर जरूर मिलेगा।
कुछ दबंग सवर्णों ने खेती करना शुरू कर दिया। इसमें पूर्व मुखिया सदानंदसिंह भी शामिल था।
जिला न्यायाधीश और पुलिस अधीक्षक से शकीना ने इसकी शिकायत की, लेकिन उन्होंने इसे हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
प्रशासन के ऐसे सांप्रदायिक रवैये के परिणास्वरूप सदानंद का मनोबल बढ़ता चला गया और वह सकीना को कौड़ियों के दाम जमीन बेचने के लिए लगातार धमकाता रहा।
भागलपुर और उससे टूटकर बने नए जिलों के लगभग 275 गांवों में सकीना और मलका बेगम जैसे सैकड़ों भुक्तभोगी न्यायालय से आने वाले हर नए फैसले की ओर इस उम्मीद से निगाहें लगाए रहते हैं कि उन्हें न्याय देर-सबेर जरूर मिलेगा।

साभार:अफज़ल

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