मोदी ने लिया बदला सच बोलने किस तरह दी गई सजा उन्हें?

विशेष
संवाददाता

संजीव भट्ट: सत्य बोलने की सज़ा और मोदी सत्ता का नग्न प्रतिशोध
यह सिर्फ एक केस नहीं, एक संकेत है।

भारत के इतिहास में कुछ फैसले अदालतों से नहीं, आत्मा की अदालत से तय होते हैं। संजीव भट्ट का मामला उसी श्रेणी में आता है। यह उस मुल्क का मामला है जो संविधान में नागरिक स्वतंत्रता लिखता है। लेकिन सत्य बोलने वालों को काल कोठरी में फेंक देता है। यह उस सिस्टम का मामला है जो भगवा वस्त्रों में लिपटा हुआ न्याय को रक्त की नदियों में बहा देता है।

पुलिस अफसर या जनता का सेनानी?

संजीव भट्ट ने कोई विद्रोह नहीं किया था। वे एक राज्य खुफिया अधिकारी थे। उन्होंने सिर्फ एक बात लिखी: 27 फरवरी 2002 को गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी ने पुलिस अधिकारियों से कहा—“हिंदुओं को गुस्सा निकालने दो।” यह वाक्य अगर सच है, तो यह भारत के लोकतंत्र का सबसे क्रूर कलंक है।
संजीव भट्ट ने इस वाक्य को अदालत में कहा—कागज़ पर, कानून की भाषा में। लेकिन जवाब में उन्हें क्या मिला?
निलंबन,
केस की पुनरावृत्ति,
झूठे मुकदमे,
और अंततः आजीवन कारावास।
वे वायरलेस रिकॉर्ड कहाँ हैं?

सबसे बड़ा प्रश्न यही है: अगर संजीव भट्ट झूठ बोल रहे थे, तो फिर सरकार ने 27 फरवरी से 3 मार्च 2002 तक के वायरलेस, रेडियो और कंट्रोल रूम रिकॉर्ड क्यों नष्ट कर दिए?
SIT को DCP कंट्रोल रूम की लॉगबुक अधूरी मिली।
अहमदाबाद, नरौदा पाटिया, गुलबर्ग सोसाइटी जैसे संवेदनशील क्षेत्रों के SOS मैसेज, अतिरिक्त बल की मांग, गश्त की निगरानी—कहीं दर्ज नहीं।
मुख्यमंत्री कार्यालय और पुलिस नियंत्रण कक्ष के बीच कोई भी संवाद रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं।

पूर्व ADGP आर.बी. श्रीकुमार और संजीव भट्ट दोनों ने बताया कि सरकार ने जानबूझकर इन रिकॉर्ड्स को नष्ट किया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त अमिकस क्यूरी रामचंद्रन ने भी कहा कि भट्ट के दावे की पुष्टि करने के लिए तकनीकी सबूतों की अनुपस्थिति सत्ता की ज़िम्मेदारी बनती है, न कि भट्ट की कमजोरी।
यानी जब कोई अफसर बोले, और सत्ता जवाब में रिकॉर्ड मिटा दे — तो गवाही को झूठा कहना, न्याय नहीं, एक षड्यंत्र होता है।

पत्रकार श्याम मीरा सिंह की चेतावनी:

“यह सिर्फ एक व्यक्ति की सज़ा नहीं है। यह उस पूरे सिस्टम की चेतावनी है—जो भी सत्ता के विरुद्ध बोलेगा, वह नष्ट कर दिया जाएगा।”
संजीव भट्ट कोई नेता नहीं हैं। न उन्होंने कोई पार्टी बनाई, न भाषण दिए। वे एक सिस्टम के भीतर थे—और उसी सिस्टम को उन्होंने कटघरे में खड़ा किया। उन्होंने सच बोला, रिकॉर्ड दिखाया, ड्राइवर के बयान रखे, कॉल डिटेल्स पेश की। फिर भी उन्हें कहा गया—झूठा। क्यों?
क्योंकि सत्ता की रक्षा झूठ से होती है। और सत्य उसे जला देता है।

यह लड़ाई तुम्हारी भी है

अगर आज संजीव भट्ट को चुप करा दिया गया, तो कल कोई भी सच बोलने वाला सुरक्षित नहीं रहेगा। कोई भी। यह पत्रकार की लड़ाई है, यह छात्र की लड़ाई है, यह न्यायपालिका की आत्मा की लड़ाई है। यह तुम्हारी लड़ाई है।
यह लेख नहीं, यह एक बिगुल है। यह एक संविधान की तरफ से पुकार है—कि अगर हम अब भी चुप रहे, तो सिर्फ संजीव भट्ट नहीं, भारत मरेगा।

अंतिम घोषणा:

हम इस मुकदमे को खारिज नहीं कर रहे। हम इस मुकदमे को जन-जांच की अदालत में ले जा रहे हैं। हम कह रहे हैं:
जब राज्य रिकॉर्ड मिटाए,
जब गवाह डरे हों,
जब अफसर गवाही दे तो सज़ा पाए,
और जब अदालतें मौन हो जाएं—
तब जनता को बोलना होता है।

संजीव भट्ट का सच एक पुलिस अफसर का नहीं, एक नागरिक का था। अब वह तुम्हारा सच है। उसे मारने न दो।
यह जन-न्याय की घोषणा है। एक स्वतंत्र भारत के नाम। एक असहमत भारत के नाम। एक क्रांतिकारी भारत के नाम।
सावधान! पुलिस अफसर संजीव भट के साथ जो कुछ हुआ, हो रहा है कल तुम्हारे साथ भी हो सकता है।

संवाद;पिनाकी मोरे

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