बाबरी मस्जिद की आत्मकथा , क्या है बाबरी मस्जिद का सच्चा इतिहास ?
मैं बाबरी मस्जिद हूँ जिसे आज ही के दिन 6 दिसंबर 1992 को शहीद कर दिया गया था !
आज की मेरी शहादत के लिए ही सन् 1949 से मेरे खिलाफ जो साजिशें की गईं उसको इतिहास और भारत सरकार के अभिलेखों में दर्ज मुकदमों , एफआईआर , और सरकार के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के बयानों की रोशनी में देखा जाए तो मुझे शहीद करने के पहले की हुई साजिशों को समझा जा सकता है।
मैं बाबरी मस्जिद हूँ , मुझे इस देश के मुगल बादशाह बाबर के कार्यकाल सन् 1528 में बनाया गया था तब ना तो आज की यह अयोध्या थी और ना कहीं राम और दशरथ की मान्यता थी!
मेरे वजूद के 40 साल बाद बाबर के ही पोते अकबर के कार्यकाल गोस्वामी तुलसीदास के लिखे राम चरित मानस के बाद आज की अयोध्या का जन्म होता है!
जहाँ मुझ से दो किलोमीटर दूर एक क्षेत्र में महाराजा दशरथ का पूरा राजभवन जानकी महल मेरी आखों के सामने बनाया गया।
अयोध्या के पश्चिमी छोर पर रामकोट मंदिर बनाया और यह अयोध्या में पूजा का प्रमुख स्थान बना
यह सभी को पता है कि रामकोट मंदिर इसलिए महत्वपूर्ण है कि यही माना गया कि यहीं पर रामचंद्र जी का जन्म हुआ ?
यह अयोध्या ही नहीं अयोध्या आने वाला बच्चा बच्चा जानता है!
राम तथा सीता का निज भवन जिसे कनक भवन के नाम से जाना जाता उसका निर्माण मेरी आँखों के सामने ही हुआ !
और ऐसा विश्वास है कि रामचंद्र जी और सीता यहीं रहते थे?
इसी अयोध्या में मेरी आँखों के सामने हनुमानगढ़ी मन्दिर का निर्माण हुआ जिसमें विराजमान हनुमान जी को वर्तमान अयोध्या का राजा माना जाता है !
मेरी आखों के सामने ही राघव जी मंदिर बनाया गया !
और आज भी इस विश्वास के साथ उस मंदिर में पूजा होती है कि सरयू में स्नान के बाद रामचंद्र जी उसी जगह एकांत में विश्राम करते थे?
अयोध्या में मेरी आँखो के सामने ही सीता रसोई और वह तमाम भवन बनाए गये!
जिसमें आज भी राजा दशरथ उनकी तीनों रानियों के कक्ष और अन्य सभी महत्वपूर्ण स्थान उपस्थित हैं!
जिसका वर्णन गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम चरित मानस में किया है ।
और मैं इन सभी महत्वपूर्ण धार्मिक इमारतों से 2 किमी दूर हूँ और अपने वजूद से 1885 तक अर्थात 350 वर्ष चुपचाप शांति से निर्विवाद रूप हे अयोध्या के बदलते स्वरूप को देखती रही!!
दरअसल यह अयोध्या भी मेरे वजूद के समय अयोध्या ना होकर बुद्ध काल से ही साकेत नाम की नगरी थी !
जिसका नाम परिवर्तित करके अयोध्या किया गया और गोस्वामी तुलसीदास की राम चरित मानस की परिकल्पना का वास्तविक चित्रण किया गया!
मुझे लेकर विवाद की शुरुआत 1885 से होती है और तब से ही 6 दिसम्बर 1992 और आजतक यानि की 6 दिसंबर 2016 तक की महत्वपूर्ण घटनाएँ जो सरकारी अभिलेख के अनुसार दर्ज है वह सुनाती हूँ!
1885: मुझे विवादित बनाने की गहराई में जाए तो पता चलता है कि मुझे लेकर यह अभी का झगड़ा नहीं है बल्कि 1885 से चला आ रहा है?
कुछ अतिवादी हिंदू संगठन के दस्तावेजों पर नजर डाली जाए तो उससे पता चलता है कि बाबर ने मंदिर तोड़ कर इस विवादित श्रीराम जन्म भूमि पर बना मन्दिर तोड़कर स्थल पर मुझे बनवाया था ?
लेकिन इतिहास और अदालत के अभिलेख कुछ और ही कहते हैं जिसके तहत बाबर कभी अयोध्या आया ही नहीं।
अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान 1885 में “महंत रघुवीर दास” ने फैजाबाद न्यायालय में एक मुकदमा दायर किया था जिसमें कहा गया था कि जन्म स्थान एक चबूतरा जो मस्जिद से अलग उसके सामने है जिसकी लंबाई पूर्व-पश्चिम इक्कीस फिट और चैड़ाई उत्तर दक्षिण सतरह फीट है।
इस चबूतरे की महंत स्वयं व हिंदू इसकी पूजा करते हैं।” इस दावे में यह भी कहा गया था कि यह चबूतरा चारों ओर से खुला है। सर्दी गर्मी और बरसात में पूजा करने वालों को कठिनाई होती है। इस लिए इस पर मंदिर बनाने की अनुमति दी जाए।
सरकार ने मंदिर बनाने से रोक दिया है इस लिए न्याया। लय सरकार को आदेश दे कि वह मंदिर बनाने दे।
सरकारी अभिलेखों और अदालती कार्यवाही में दर्ज है कि 24 दिसंबर 1885 को फैजाबाद के सब जज पं. हरिकृष्ण ने महंत रघुवीरदास की अपील यह कहते हुए खारिज कर दी थी
कि बाबरी मस्जिद के सामने मंदिर बनाने की इजाजत देने से हिंदू-मुसलमान के बीच झगड़े और खून खराबे की बुनियाद पड़ जाएगी?
फैसले में यह भी कहा गया था कि मंदिर मस्जिद के बीच एक दीवार है जो दोनों पूजा स्थलों को एक दूसरे से अलग साबित करती है। मंदिर और मस्जिद के बीच यह दीवार 1857 से पहले बनाई गई थी।
फैजाबाद के सब जज पं. हरि कृष्ण के फैसले के खिलाफ राम जन्म स्थान के महंत रघुवीर दास ने फैजाबाद के जिला जज कर्नल जे आर्य के यहां अपील की।
जिसका मुआयना करने के बाद इसे 16 मार्च 1886 को उस अपील को खारिज दिया गया।
जिला जज के इस फैसले के खिलाफ महंत रघुवीर दास ने ज्यूडीशिनल कमिश्नर जिसके पास पूरे अवध के लिए हाईकोर्ट के समान अधिकार थे, ने भी अपने फैसले के जरिए इस अपील को एक नवंबर 1886 को खारिज कर दिया ,पूरे प्रकरण की कापी कोई भी अदालतों से प्राप्त कर सकता है।
इस फैसले के बाद बाबरी मस्जिद में नमाज पढ़ी जाती रही, राम जन्म स्थान चबूतरों पर हिन्दू पूजा अर्चना करते रहे।
हिंदू-मुस्लिम के बीच कभी कोई विवाद नहीं हुआ। सन 1934 में गो-वध को लेकर अयोध्या में एक दंगा हुआ, जिसमें बाबरी मस्जिद की एक दीवार को छति पहुंची। जिसे सरकार ने अपने खर्चे से बनवा दिया।
देश को आज़ादी 1947 को मिली और अंग्रेजी हुकूमत की दहशत कट्टरपंथी हिन्दू अतिवादी संगठनों के हृदय से भी दूर हुई । और यहीं से मेरे खिलाफ साजिशें शुरु हुईं जो अंग्रेजों की हुकूमत में सम्भव नहीं थीं।
बात साल 1949 की है , आजाद भारत की उम्र कुल मिलाकर दो साल ही हुई थी
, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अभी भी भारत के विचार को साकार करने में लगे हुए थे, और उनके सहयोगी सरदार वल्लभभाई पटेल देश की सीमाओं को परिभाषित कर रहे थे ,1949 में देश भले ही आजाद हो गया था!
लेकिन विभाजित भारत के लोग अभी भी विभाजन की त्रासदी में तार-तार हुए सामाजिक तानेबाने के चीथड़े को समेटने की कोशिश कर रहे थे।
इन्हीं सबके बीच भारत में ज़हर फैलाने की ज़मीन तैयार की जा रही थी और उसके लिए चुना गया
उत्तर प्रदेश की अयोध्या को जहाँ बहुसंख्यकों के श्रद्येय भगवान पुरुषोत्तम राम का कभी शासन चलता था और जिसे लेकर सनातन धर्म के लोगों में जबरदस्त धार्मिक भावना रही है , तो उसी धार्मिक भावना का राजनैतिक दोहन करने के लिए 22 दिसंबर 1949 की रात को अयोध्या घेरने की तैयारी कर ली गई ।
जैसा कि कहानी गढ़ी गई कि “सुबह करीब 3 बजे अचानक से बिजली चमकी और श्रीराम बाबरी मस्जिद में प्रकट हो गए।
चमत्कार मानकर विश्वास कर लिया गया यह वाक्या राम जन्मभूमि को आजाद करवाने की दिशा ?
या संघियों में हिंदुओं के भारत में ज़हर फैलाने की योजना में एक महत्वपूर्ण दाँव साबित हुआ।
दावा किया जाता है कि बाबरी मस्जिद को बाबर के सिपहसालार मीर बाकी ने साल 1528 में श्रीराम जन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़कर बनवाया था।
लेकिन इस वाकये से जुड़ी एक ज्यादा जमीनी व्याख्या 23, दिसंबर 1949 को दर्ज हुई एफआईआर में है
इस घटना की सूचना संबंधित थाने के कांस्टेबल माता प्रसाद ने थाना इंचार्ज राम दुबे को दी जिसमें अयोध्या के पुलिस स्टेशन के ऑफिसर इंचार्ज ने मुख्य रूप से तीन लोगों को नामजद किया था!
अभिराम दास, राम शकल दास और सुदर्शन दास , इसके अलावा 50 से 60 अज्ञात लोगों के खिलाफ भी दंगा भड़काने, अतिक्रमण करने और एक धर्मस्थल को अपवित्र करने का मामला दर्ज किया गया था।
इस एफआईआर का क्या हुआ ?आज तक किसी को पता नहीं और ये वही लोग थे जिन्होंने बाबरी मस्जिद में घुसकर विवाद को जन्म दिया , उसके पहले श्रीराम जी के जन्मस्थान की चौहद्दी अलग अलग स्थानों की बताई जाती रही जिसमें एक चौहद्दी “रामकोट” की भी है।
खुद देखिए उस एफआईआर की भाषा जो सरकारी अभिलेखों में दर्ज हुई !
ध्यान रखियेगा कि यह अभिलेख स्वतंत्र भारत के सरकारी अभिलेख में दर्ज एक एफआईआर है ना कि मुगल औरंगजेब के शासन काल के अभिलेख में दर्ज कोई फरमान।
50 से 60 लोगों का एक समूह बाबरी मस्जिद परिसर के ताले को तोड़कर, दीवारों और सीढ़ियों को फांदकर अंदर घुस आए और श्रीभगवान की प्रतिमा वहां स्थापित कर दी।
साथ ही उन्होंने पीले और केसरिया रंग में सीता और रामजी, आदि की तस्वीरें मस्जिद की भीतरी और बाहरी दीवारों पर बना दीं. मस्जिद में घुसपैठ करनेवालों ने मस्जिद को ‘नापाक’ किया है।
इस घटना के कुछ समय बाद ही एक 6 फीट लंबे तुनकमिजाज साधु अभिराम दास को “उद्धारक बाबा” के नाम से पुकारा जाने लगा।
लेकिन क्या एक मस्जिद को मंदिर में बदलने का ये पुख्ता ब्राह्मणवादी प्लान बिना स्थानीय प्रशासक की मदद के बन पाना संभव था ?
उस समय गुरुदत्त सिंह फैजाबाद के सिटी मैजिस्ट्रेट थे और उनके बारे में यह मशहूर था कि उन्होंने अपने ब्रिटिश आकाओं को खुश करने की खातिर अपने तौर-तरीके कभी नहीं छोड़े थे।
उनके पोते शक्ति सिंह, जो कि फैजाबाद में बीजेपी के नेता हैं, ने एक पत्रिकादी क्विंट”को बयान दिया था कि उनके दादा गुरुदत्त “पक्के हिंदूवादी” थे।
गुरुदत्त सिंह शाकाहारी थे, कोई नशा नहीं करते थे और अपने कॉलेज के दिनों से ही रामभक्त थे।
उसी पत्रिका “दी क्विंट” का एक दावा देखिए कि “गुरुदत्त सिंह के बेटे गुरू बसंत सिंह, 86 वर्षीय, पहले तो हमसे बात करने में हिचके लेकिन थोड़ी देर बाद उन्होंने उन खुफिया बैठकों के बारे में बताया जो उनके घर ‘राम भवन’ में हुआ करते थे।
उस समय बसंत सिंह सिर्फ 15 साल के थे और मेहमानों को नाश्ता-पानी देने के लिए उन बैठकों में आते-जाते रहते थे।
इन बैठकों में उनके पिता के अलावा जिला मजिस्ट्रेट केके नायर, पुलिस अधीक्षक कृपाल सिंह और जिला जज ठाकुर बीर सिंह शामिल थे।
शहर के चार बड़े अधिकारी बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति स्थापित करने की जिद पर थे। कौन करता इनका विरोध और उससे क्या हो जाता ?
उनकी गतिविधियों से लगता था कि वो सतर्क अधिकारी थे, लेकिन असल में वो भक्तों को छूट देते थे ताकि वो मस्जिद में घुस सकें और पूजा-पाठ कर सकें गुरू बसंत सिंह!
लेकिन जो कुछ भी इन अधिकारियों ने किया उसे कबूल लेने की बजाय उन्होंने ‘चमत्कार’ की कहानी क्यों गढ़ी ? पत्रिका के इस सवाल का जवाब गुरू बसंत सिंह के पास था।
उन्होंने बताया कि इस घटना से आम लोगों को जोड़ने के लिए ऐसा किया गया। मस्जिद में स्वयं रामलला के प्रकट होने के दावे से बेहतर युक्ति क्या हो सकती थी
गुरुदत्त सिंह के सीनियर और फैजाबाद के जिला मजिस्ट्रेट केके नायर एक मृदुभाषी मलयाली थे।कहा जाता है कि उनका झुकाव हिंदू महासभा की तरफ था
जो कि भारत की सबसे पुरानी हिंदूवादी राष्ट्रवादी पार्टी थी। जिस दिन बाबरी मस्जिद में घुसपैठ हुई, उस दिन केके नायर छुट्टी पर थे, लेकिन वो फैजाबाद छोड़कर नहीं गए।
इस योजना में केके नायर की मिलीभगत की बात इससे भी साबित होती है कि वो घटनास्थल पर सुबह चार बजे ही पहुंच गए थे, लेकिन उन्होंने लखनऊ में अपने वरिष्ठों को इस घटना की सूचना सुबह 10:30 बजे तक नहीं दी।
बाबरी मस्जिद में हिंदू धर्म के कुछ लोग रात के अंधेरे में घुस आए और वहां भगवान रामलला की स्थापना की। जिला मजिस्ट्रेट, पुलिस अधीक्षक और पुलिस के जवान मौके पर पहुंच चुके हैं। स्थिति नियंत्रण में है. पुलिस पिकेट के 15 जवान, जो रात को ड्यूटी पर थे, ने भीड़ को रोकने के लिए कुछ नहीं किया।.
संयुक्त प्रांत के मुख्यमंत्री गोबिंद बल्लभ पंत को केके नायर का रेडियो संदेश
सुबह 4 बजे बाबरी मस्जिद पहुंच चुके नायर ने अगले पांच घंटे तक ना तो मस्जिद खाली कराने की कोशिश की और ना ही मूर्ति को हटाया।
नायर बाद में जनसंघ में शामिल हो गए और चुनाव जीतकर सांसद भी बने।
प्रधानमंत्री नेहरू क्या कर रहे थे ?
26 दिसंबर,1949 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गोविंद वल्लभ पंत को टेलिग्राम भेजकर अपनी नाराजगी जाहिर की और लिखा कि “वहां एक बुरा उदाहरण स्थापित किया जा रहा है जिसके भयानक परिणाम होंगे।”
इसके बाद 5 फरवरी, 1950 को उन्होंने पंत को एक और चिट्ठी लिखी और उनसे पूछा कि क्या उन्हें अयोध्या आना चाहिए ?
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की यह यात्रा कभी नहीं हो पाई।
बाबरी मस्जिद के अंदर मूर्तियों की स्थापना के 66 साल बाद आज भी इस बात पर बहस जारी है कि 22 दिसंबर, 1949 को हुई यह घटना “एक सुनियोजित साजिश थी जिसमें राष्ट्र में ज़हर फैलाने की योजना बनाने वाले नेता शामिल थे ।
लेकिन जमीनी स्तर पर, इसे स्थानीय प्रशासन और मीडिया द्वारा एक स्थानीय सांप्रदायिक घटना के रूप में प्रस्तुत किया गया. 22 दिसंबर, 1949 को घटी इस घटना ने अंग्रेजों द्वारा बनाई गई उस व्यवस्था को भी खत्म कर दिया जिसके अंतर्गत हिंदुओं और मुस्लिमों के लिए मस्जिद के अंदर पूजा और नमाज पढ़ने की व्यवस्था की गई थी।
बाबरी मस्जिद परिसर, कानून की धारा 145 के तहत सभी के लिए बंद कर दिया गया।इससे जुड़े सिविल मामलों की सुनवाई में अदालत ने मूर्तियां हटाए जाने या पूजापाठ में किसी तरह की रुकावट पर रोक लगा दी।एक फरवरी 1986 को फैजाबाद के मजिस्ट्रेट “एम के पांडे” ने मस्जिद के ताले को खोलने का आदेश पारित कर दिया ।
छह दिसंबर 1992 तक मस्जिद के दरवाजे बंद रखे गए और अंदर आने की इजाजत सिर्फ उन पुजारियों को दी गईं जो रामलला की ‘देखभाल और पूजापाठ’ करते थे।
वीएचपी, बीजेपी और कांग्रेस ने चार दशक बाद इस मामले को इस तरह उठाया जिसकी पहले कभी कल्पना नहीं की गई थी।बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा शुरू की, जो एक जन आंदोलन बन गया। मुलायम सिंह यादव ने मेरे सामने मेरे अपने भाईयों पर गोलियाँ चलवाईं और राजनैतिक फसल काटी और मुझे लेकर वह नफरत पैदा की जिसका अंत 6 दिसंबर, 1992 के दिन मेरे विध्वंस के साथ हुआ ।
मुझे फिर से बनाने के लिए संसद में देश के प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी , यह भारत के इतिहास का ऐसी झूठी घोषणा थी जो संसद में बोली गयी और फिर साज़िशों के कारण की गयी घोषणा साबित हुई। भारत की संसद में प्रधानमंत्री द्वारा बोला गया यह झूठा ऐलान हिन्दुस्तान की एक तारीख बनेगा जो साजिश के तहत बोला गया।
और ऐसी ही साजिश हुई इलाहाबाद उच्चन्यायालय में जब मेरी ज़मीन के मालिकाना हक को लेकर चल रहे मुकदमें के फैसले में काग़जात और सबूत के आधार पर फैसला ना करके आस्था के आधार पर मेरी ज़मीन को तीन टुकड़ों में बाँट कर एक छोटा सा टुकड़ा मुझे दे दिया गया।
सवाल यह है कि अगर वह ज़मीन जहाँ मैं खड़ी थी वहाँ श्रीराम जी पैदा हुए थे यह साबित किया गया तो वह छोटा सा मेरी ही ज़मीन का टुकड़ा मुझे क्युँ दिया गया ? , मालिकाना हक के मुकदमे के फैसले में ज़मीन का मालिक एक पक्ष को ही अदालत घोषित करती है ना कि बटवारा करती है।
मैं बाबरी मस्जिद हमेशा साजिश की शिकार हुई और वैसी ही साजिश फिर होती दिख रही है जब अयोध्या में टनो टन पत्थर क्रेन से उतारे जा रहे हैं ।
मैं “बाबरी मस्जिद” गवाही देती हूँ इनकी साजिशों की जो देश को तोड़ने में लगे हैं हिन्दुस्तान वालों ।मैं शहीद हो चुकी वह इमारत हूँ जिसे दुबारा नहीं बनाया जा सकता पर इस भारत की सीमाओं को शहीद करने से बचा लो हिन्दुस्तान वालों। यह संघी इस देश के दुश्मन हैं साजिशदाँ हैं नफरत खूनखराबे के पुजारी हैं इन्हें श्रीराम से क्या मतलब , श्रीराम को तो मैने 450 साल करीब से देखा है इसी अयोध्या में जो इन जैसों से विपरीत हैं , गोस्वामी तुलसीदास को देखा है जो इनके जैसे ज़हरीले नहीं थे बल्कि प्रेम और गरिमा के सौन्दर्य में लिपटे राम के पुजारी थे । संभल जाओ ऐ हिन्दुस्तान वालों कि कहीं संघी इस हिन्दुस्तान का हश्र मुझ जैसा ना कर दें ।