तलाक दे तो रहे मुझको तुम बड़े कहर के साथ, मेरा शबाब भी लौटा दो मुझको मेरे मेहर के साथ ,आखिर क्या है मेहर? जानिए खुलासा
मेहर” क्या है
अक्सर लोगों को ये गलतफहमी है कि मेहर सिर्फ तलाक़ के मौकों पर अदा किया जाता है।
जबकि जिस तरह इस्लामी शरीअत ने मेहर बांधना ज़रूरी क़रार दिया है उसी तरह उसे अदा करने का भी हुक्म है।
कुरआन में है-“और औरतों के मेहर खुशदिली के साथ अदा करो।” ( सूर:निसा)
बहुत कम लोग है जो बीवी को बा-ज़ाप़्ता मेहर अदा करते है ज़्यादातर ये चीज़ सिर्फ कागज़ों पर ही रहती है।जब बदकिस्मती से कोई निकाह टूटता है तो फिर मेहर की अदायगी का मुतालबा किया जाता है।मानो मेहर का ताल्लुक़ निकाह से नही बल्कि तलाक़ से है।
हज़रत आइशा सिद्दीक़ा रज़िo से रिवायत है कि नबी सल्लo ने फरमाया कि- ‘जिस शख़्स ने किसी औरत से कम या ज़्यादा मेहर पर निकाह किया और उसके दिल मे उस (मेहर) की अदाएगी का इरादा ही नही था तो कल क़यामत के दिन अल्लाह के सामने ज़िनाकार (बलात्कारी) की हैसियत से पेश होगा।’ (हदीस)।
और एक दूसरी हदीस मे है कि-
“नबी ए करीम (सल्ल.) ने हज़रत अली रज़िo से पूछा कि तुम्हारे पास मेहर में देने के लिए क्या है ?
‘हजरत अली बोले कुछ भी नही।’आप सल्लo ने कहा ‘वह टूटी हुई ज़िरह (कवच) कहाँ ? (जो बद्र की लड़ाई में हाथ आई थी)।’कहा वह तो मौजूद है।आप सल्लo ने कहा,वह काफी है।” (हदीस)।
हदीस की रोशनी मे पता चलता है कि मेहर एक तरह का कर्ज़ है जो हर हाल में अदा करना होता है।अगर कोई आदमी इस कर्ज़ को चुकाए बिना दुनियां से चला गया तो उसकी हैसियत यही होगी के वह कर्ज़दार मर गया।
अफसोस की आदमी जब बगैर मेहर अदा करे मरता है तो घर वाले उस औरत को पकड़कर मय्यत के सामने लाते है (जैसे मानो सती प्रथा के लिए लाया जाता है।) मेहर माफ करने पर मजबूर करते हैँ।
मेहर के बारे मे यह भी साफ तौर पर बता दिया है कि वह औरत की मिल्कियत बन जाता है और फिर मर्द उसे औरत से ले नही सकता हाॅ अगर कोई औरत अपनी खुशदिली से मेहर या कोई हिस्सा माफ करदे तो इसकी औरत को इजाज़त है। शर्त ये है कि वह वाकई खुशदिली से माफ कर रही हो, ऐसा करने पर मजबूर न किया जा रहा हो !
तलाक़ दे तो रहे मुझको तुम बड़े क़हर के साथ ।
मेरा शबाब भी लौटा दो मुझको मेरे मेहेर के साथ।
संवाद; मो अफजल इलाहाबाद