सिर्फ एक बूढ़ा शख़्स क़ौम की क़्यादत का बोझ ऐसे वक़्त में लिए फ़िर रहा था जब कारवां लुट चुका था! वो कौन था ? जाने !
रिपोर्टर:-
दुनिया के नक़्शे पर मुसलमानों की तीन बड़ी सल्तनतों (मुग़लया ह़ुक़ूमत, आटोमन साम्राज्य, और इरानी बादशाहत) की कफ़न-दफ़न की तय्यारी चल रही थी।
लोग बिन चरवाहे के जानवरों की तरह मारे फिर रहे थे ।
हर एक नवजवान हाथों में शराब का जाम लिए तवायफ़ खानों में किसी रक़्क़ासा की ज़ुल्फों में अपनी मौत का रास्ता ढूंढ रहा था।
वक़्त बहुत कठिन चल रहा था और हर डगर कांटों भरा।
एक तरफ़ ग़ैरों की मार और दूसरी तरफ़ अपनों की गालियाँ, जाहिलों ने फ़टे जूतों से स्वागत किया तो पढ़े-लिखों ने कुफ़्र का फ़तवा दिया।
जब लोग पायलों की झंकार में मदहोश थे ।
तब ये ‘बूढ़ा’ अपने पैरों में घुंघरू बांधकर अपनी क़ौम को बेदार कर रहा था।
शाहजहां ने अपनी चहेति बिवी अर्जुमंद बानो को मुमताज़ मह़ल और उसकी याद में ताजमहल बनाया।
लेकिन सर सय्यद ने तो अपनी क़ौम को ही ताजमहल समझा और मिल्लत के हर बेटे-बेटियों को शाहजहां और मुमताज़।
और इनकी हिफ़ाज़त के लिए एक लाल-क़िला बनाया जिसे दुनिया आज ‘अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी” के नाम से जानती है।
जिसकी दीवारें मुश्किल वक़्त में आज भी इस क़ौम के लिए एक शीशा पिलाई हुई ढाल की तरह काम करती हैं।
सर सय्यद (अ.र.) की यही सब क़ुर्बानियां थीं कि अकबर इलाहाबादी को भी आख़िर में झुक कर ये कहना पड़ा —
हमारी बातें ही बातें थीं कि सय्यद काम करता था
ख़ुदा बख़्शे बहुत सी खूबियां थीं मरने वाले में !