साक्षरता, शिक्षा और हम ?देश को स्वतंत्रता मिलने के 74 वर्ष बाद भी हमारी शिक्षा के प्रति चल रही है काम चलाऊ सोंच जिम्मेदार कौन?

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रिपोर्टर:-

इस उपेक्षा का परिणाम यह हुआ कि अभी तक हमारे देश में लगभग तैंतीस लाख लोग अशिक्षित हैं।
सही मायने में यह कहें कि साक्षर नहीं है।
मतलब तैंतीस लाख लोगों को अपना नाम तक लिखने नहीं आता और जिन्हें अपना नाम लिखने आ जाता है, उन्हें सरकार अपने साक्षरता के रजिस्टर में डाल देती है।
इस हिसाब से हमारे देश में चौहत्ततर फीसद तक साक्षरता पहुंच सकी है।
लेकिन निरक्षरता में कमी जनसंख्या में वृद्धि अनुपात में नहीं हो पाई है।

2001 से 2011 तक के बीच सात वर्ष आयु के ऊपर की जनसंख्या में अठारह करोड़ पैंसठ लाख इजाफा हुआ है,
पर निरक्षरता में कमी सिर्फ तीन करोड़ ग्यारह लाख ही दर्ज हुआ।
अगर हम शिक्षा के अधिकार कानून की बात करें तो यह कानून 2010 में पारित हुआ था ।
और इसकी व्यवस्था के अनुसार छह से चौदह वर्ष आयु के बीच के सभी बच्चों को अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराना आवश्यक है। मगर इसमें हम सफल नहीं हो पा रहे हैं।
विद्यालयों और शिक्षकों की भारी कमी के अलावा जो हैं भी, उनमें से अधिकतर विद्यालयों में न तो बिजली की व्यवस्था है, न शौचालयों की।

हाल ही में एक खबर में सरकारी विद्यालयों का आंकड़ा दिया गया था कि ग्यारह हजार प्राथमिक स्कूल पूरी तरह से जर्जर हैं ,ग्यारह लाख चालीस हजार स्कूलों की और छह लाख अट्ठानबे हजार कक्षाओं की मरम्मत कराने की जरूरत है।
माना कि बच्चों को मैदान में बिठा कर पढ़ा लिया जाता है,
लेकिन इस तरह पढ़ाने के लिए भी तो कोई शिक्षक चाहिए!

अधिकतर प्राथमिक विद्यालयों में केवल दो से तीन शिक्षकों की ही मात्र नियुक्ति की गई है। उन्हें पढ़ाना होता है पांच कक्षाओं को।
इन्हीं सब समस्याओं के कारण गांव में एक हजार में से तीन सौ छब्बीस और शहरों में एक हजार में से तीन सौ तिरासी बच्चे बीच में ही स्कूल या पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर हैं।

इसी कारण साक्षरता और शिक्षा के मामले में भारत की गिनती दुनिया के पिछड़े देशों में होती है।
अगर हम अपने देश की तुलना आसपास के देशों से करें तो हम चीन, श्रीलंका, म्यांमा ईरान से भी पीछे हैं।
लेकिन अब समय आ गया है कि सरकार शिक्षा पद्धति के बारे में पुनर्विचार करे और उसे नए सिरे से तराशे।
अब किसी भी कारण को बहाना बनाने से नहीं चलेगा।

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