ये तस्वीर लखनऊ की किसी तवायफ की है,जिसको दरोगा अली अब्बास ने सन 1870..74 इस्वी के बीच किसी वक्त उतारा था हो सकता है ये वही उमराव जान हो सकती है?

उर्दू का एक उपन्यास है ‘उमराव जान अदा’। इसे मिर्ज़ा हादी रुस्वा ने लिखा था। मिर्ज़ा का समय 1857-1931 के बीच ठहरता है। वह लखनऊ के बाशिंदे थे। तमाम नौकरियों से गुज़रते हुए कुछ वक्त लखनऊ क्रिश्चियन कालेज में अरबी- फ़ारसी के व्याख्याता भी रहे। ये उपन्यास उमराव नाम की एक तवायफ़ का ज़िंदगीनामा पेश करता है।

मिर्ज़ा का दावा है कि उमराव उनकी समकालीन थीं और अदा तख़ल्लुस से शायरी भी लिखती थीं। उपन्यास को पढ़कर ऐसा लगता है कि जिस जज़्बे और अदा से उमराव शायरी करती रही होंगी उतनी ही शिद्दत से मिर्ज़ा ने उन्हें काग़ज़ पर उतार दिया है।

इसी उपन्यास पर मुज्जफर अली ने एक नायाब फ़िल्म बनाई।मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मुजफ्फर अली ने अपने-अपने हुनर से उमराव जान को इस कदर ज़िंदा कर दिया कि तवायफ़ संस्कृति के बारे में सोचते हुए ज़ेहन में पहला नाम उमराव का ही उभरता है। हालांकि तारीख़ में उन्हें तलाशते हुए कोई ख़ास मालूमात नहीं होती। कुछ कड़िया हैं जो उमराव को हक़ीक़त में ढालती हैं।

उपन्यास में दो डकैतों का ज़िक्र है । पहले फज़ल अली और दूसरे फ़ैज़ अली जिन्हें आपस में भाई बताया गया है। इनमें से फज़ल का ज़िक्र उस समय के ब्रिटिश रिकार्ड में है। वह 1856 ईस्वी में मारा गया। उसे गोंडा का रहने वाला बताया गया है। सन 1857 की गदर में गोंडा की भूमिका का ज़िक्र इतिहास में दर्ज़ है।1858 की उथल-पुथल के बाद उमराव जान के बहराइच जाने और फैज़ अली के संपर्क में होने का क़िस्सा मिर्ज़ा हादी रुस्वा भी बयान करते हैं।

दूसरी कड़ी कानपुर की तवायफ़ अजीज़न बाई की है। ब्रिटिश काल के दस्तावेज़ो में षडयंत्र के अपराध में उन्हें फाँसी पर लटकाने का ज़िक्र है। वह उमराव जान की शागिर्द कही गई हैं। उनकी क़ब्र कानपुर में मौजूद है। ये जानकारियां तफ़सील से अमरेश मिश्रा ने अपनी पुस्तक में दर्ज़ की हैं।

ज्यादातर उमराव जान की क़ब्र के न मिलने की चर्चा विद्वानों में होती रही है। क़ब्र तो नहीं सुकृता पॉल ने उमराव पर अपने निबंध में एक मस्जिद का ज़िक्र जरूर किया है जो घाघरा नदी के किनारे है जिसे वह उमराव जान का बनवाया हुआ मानती हैं।

फातमान, बनारस में एक क़ब्र है जिसे उमराव जान की कहा गया है। उमराव क़िस्सा थीं या हक़ीक़ी कहना मुश्किल है।नवाबी लखनऊ में तवायफ़ संस्कृति रही है। इससे किसी को गुरेज़ नहीं है। इस बात की तस्दीक़ तमाम दस्तावेज़ो से होती है।
दस्तावेज़ो के साथ-साथ उस समय उतारी गई तवायफ़ों की तस्वीरों से हम उन्हें और क़रीब से महसूस कर पाते हैं। उनकी जिंदगी की जंग और आँसुओं का रंग उमराव जान के क़िस्से से बहुत जुदा न रहा होगा।

तस्वीर : लख़नऊ की किसी तवायफ़ की है। इसे दरोगा अली अब्बास ने सन1870-74 ईस्वी के बीच किसी समय उतारा था।

संवाद: मो अफजल इलाहाबाद

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