दिनोंदिन विस्तार लेता हुआ यह आंदोलन. कौन कहता है कि ये संघर्ष सिर्फ किसानों का है ?

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रिपोर्टर:-

बच्चे-बूढ़े-जवान, हिंदू-सिख-ईसाई-मुसलमान, सामूहिक चेतना के केंद्र में जैसे किसान।
जिद को किसान पर आरोपित करना किसान को अपमानित करना !

इस समय दोनों हाथों से काम करने वाले मेहनतकश ही नहीं,
देश का हर जागरूक और संवेदनशील नागरिक राजधानी की सीमाओं पर जूझ रहे किसानों के दुख से व्याकुल है।
कोई व्यापारी है या नौकरीपेशा, लेखन-शिक्षा, चिकित्सा- किधर जुड़ा है, कोई फर्क नहीं पड़ता।

ग्रामीण-शहरी, कम या अधिक शिक्षा पाए, न पाए हुए लोग, निर्धन-धनवान, बच्चे-बूढ़े-जवान, हिंदू-सिख-ईसाई-मुसलमान, सामूहिक चेतना के केंद्र में जैसे किसान ही हो विराजमान।
अभी पिछले ही साल वाले जामिया मिल्लिया और जेएनयू के हृदयविदारक परिदृश्य, ठिठुराते जाड़ों वाले शाहीनबाग, दिल्ली के दंगों की आग- वे सब घटनाक्रम स्मृति-पटल से मिटाए नहीं मिट रहे।
अधिक समय नहीं हुआ जब हमने शहरों से गांवों तक हजारों मील का सफर तय करते अपने प्रवासी मजदूरों का मंजर देखा।
और अब एक विराट संघर्ष, खेती-किसानी का, जमीन का, भूख और रोटी का।

कौन कहता है कि यह संघर्ष केवल किसान का है या मजदूर का है या देश के किसी छोटे-से हिस्से का है!
एक बड़ा अजीब सवाल यह कि किसानों को जिद क्यों है?
मेरी राय है कि जिद को किसान पर आरोपित करना किसान को अपमानित करना है।
ऐसा नहीं कि किसान अपनी स्थिति में सुधार नहीं चाहता।

पर कृषि-सुधारों को लेकर किसान की प्राथमिकताएं अलग हो सकती थीं, जिन पर किसान-संगठनों के साथ विचार-विमर्श किया जाता। किसानों का तर्क कैसे सही नहीं है कि उन पर जबर्दस्ती थोपा गया ऐसा कुछ उन्हें स्वीकार नहीं, जिसके साथ उनके भविष्य की आशंकाएं जुड़ी हैं? वस्तुस्थिति को लेकर किसान चिंतित है।
इसके पीछे की मंशा और भावी परिणामों को वह बहुत स्पष्ट रूप में समझता है, इसे लेकर किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए।
सच्चाई यह है कि दिनोंदिन विस्तार लेता हुआ यह आंदोलन एक प्रतिक्रिया है,लोकतंत्र में इसकी व्यवस्था है और होनी भी चाहिए।

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