क्यों मनाया जाता है यहां ऐसा खूनी खेल गोटमार , क्या है चक्कर?


गोटमार मेले का आयोजन महाराष्ट्र की सीमा से लगे मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के पांढुरना कस्बे में हर वर्ष भादो मास के कृष्ण पक्ष में अमावस्या पोला त्योहार के दूसरे दिन किया जाता है। मराठी भाषा बोलने वाले नागरिकों की इस क्षेत्र में बहुलता है और मराठी भाषा में गोटमार का अर्थ पत्थर मारना होता है। शब्द के अनुरूप मेले के दौरान पांढुरना और सावरगांव के बीच बहने वाली नदी के दोनों ओर बड़ी संख्या में लोग एकत्र होते हैं और सूर्योदय से सूर्यास्त तक पत्थर मारकर एक-दूसरे का लहू बहाते हैं। इस घटना में कई लोग घायल हो जाते हैं। इस पथराव में कुछ लोगों की मृत्यु के मामले भी हुए हैं।

परंपरा
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इसकी शुरुआत 17वीं ई. के लगभग मानी जाती है। नगर के बीच में नदी के उस पार सावरगांव व इस पार को पांढुरना कहा जाता है। कृष्ण पक्ष के दिन यहां बैलों का त्यौहार पोला धूमधाम से मनाया जाता है। इसी दिन साबरगांव के लोग पलाश वृक्ष को काटकर जाम नदी के बीच गाड़ते है उस वृक्ष पर लाल कपड़ा, तोरण, नारियल, हार और झाड़ियां चढ़ाकर उसका पूजन किया जाता है। दूसरे दिन सुबह होते ही लोग उस वृक्ष की एवं झंडे की पूजा करते है और फिर प्रात: 8 बजे से शुरु हो जाता है एक दूसरे को पत्थर मारने का खेल।

ढोल ढमाकों के बीच भगाओ-भगाओ के नारों के साथ कभी पांढुरना के खिलाड़ी आगे बढ़ते हैं तो कभी सावरगांव के खिलाड़ी। दोनों एक-दूसरे पर पत्थर मारकर पीछे ढ़केलने का प्रयास करते है और यह क्रम लगातार चलता रहता है। दर्शकों का मजा दोपहर बाद 3 से 4 के बीच बढ़ जाता है। खिलाड़ी चमचमाती तेज धार वाली कुल्हाड़ी लेकर झंडे को तोड़ने के लिए उसके पास पहुंचने की कोशिश करते हैं। ये लोग जैसे ही झडे के पास पहुंचते हैं साबरगांव के खिलाड़ी उन पर पत्थरों की भारी मात्रा में वर्षा करते है और पाढुर्णा वालों को पीछे हटा देते हैं।

शाम को पांढुरना पक्ष के खिलाड़ी पूरी ताकत के साथ चंडी माता का जयघोष एवं भगाओ-भगाओ के साथ सावरगांव के पक्ष के व्यक्तियों को पीछे ढकेल देते है और झंडा तोड़ने वाले खिलाड़ी झंडे को कुल्हाडी से काट लेते हैं। जैसे ही झंडा टूट जाता है, दोनों पक्ष पत्थर मारना बंद करके मेल-मिलाप करते हैं और गाजे बाजे के साथ चंडी माता के मंदिर में झंडे को ले जाते है। झंडा न तोड़ पाने की स्थिति में शाम साढ़े छह बजे प्रशासन द्वारा आपस में समझौता कराकर गोटमार बंद कराया जाता है। पत्थरबाजी की इस परंपरा के दौरान जो लोग घायल होते है, उनका शिविरों में उपचार किया जाता है और गंभीर मरीजों को नागपुर भेजा जाता है।

किवदंती
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इस मेले के आयोजन के संबंध में कई प्रकार की किवंदतियां हैं। इन किवंदतियों में सबसे प्रचलित और आम किवंदती यह है कि सावरगांव की एक आदिवासी कन्या का पांढुरना के किसी लड़के से प्रेम हो गया था। दोनों ने चोरी छिपे प्रेम विवाह कर लिया। पांढुरना का लड़का साथियों के साथ सावरगांव जाकर लड़की को भगाकर अपने साथ ले जा रहा था। उस समय जाम नदी पर पुल नहीं था। नदी में गर्दन भर पानी रहता था, जिसे तैरकर या किसी की पीठ पर बैठकर पार किया जा सकता था और जब लड़का लड़की को लेकर नदी से जा रहा था तब सावरगांव के लोगों को पता चला और उन्होंने लड़के व उसके साथियों पर पत्थरों से हमला शुरू किया। जानकारी मिलने पर पहुंचे पांढुरना पक्ष के लोगों ने भी जवाब में पथराव शुरू कर दी। पांढुरना पक्ष एवं सावरगाँव पक्ष के बीच इस पत्थरों की बौछारों से इन दोनों प्रेमियों की मृत्यु जाम नदी के बीच ही हो गई।

दोनों प्रेमियों की मृत्यु के पश्चात दोनों पक्षों के लोगों को अपनी शर्मिंदगी का एहसास हुआ और दोनों प्रेमियों के शवों को उठाकर किले पर माँ चंडिका के दरबार में ले जाकर रखा और पूजा-अर्चना करने के बाद दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया। संभवतः इसी घटना की याद में माँ चंडिका की पूजा-अर्चना कर गोटमार मेले का आयोजन किया जाता है।

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