मिडल ईस्ट में ये एक पिद्दी सा देश है 15,20साल पहले इसकी कोई अहमियत नहीं थी अचानक ही दुनिया के सामने वो धूमकेतु की तरह उभर ,दूजिया का मीडिया हाउस बना ,कैसे इसे जानिए

संवाददाता
राशिद मोहमद खान

मिडिल ईस्ट में एक मामूली सा देश है-कतर
पन्द्रह बीस साल पहले इसकी कोई अहमियत नहीं थी। इसके बाद अचानक से वह धूमकेतु की तरह उभरा। दुनिया उसकी सुनने लगी, पूछ परख बढ़ गयी। क्या उसने एटम बम बनाये? या आर्थिक ताकत बन गया? नही, ऐसा कुछ नही।

कतर, आज दुनिया का मीडिया हाउस है। एक चैनल है, जिसकी दुनिया भर में पहुँच है, जो विश्वसनीय है। जो चाहे दुनिया मे आपकी थू थू करवा सकता है, बस उसे कुछ सच्चाइयां दिखाने भर की देर है।
इस देश ने भारत सरकार से नूपुर/नवीन मामले में अनकंडीशनल, सार्वजनिक माफी मांगने को कहा है। और भारत की सरकार ना ना करते हुए भी मजबूरन यही कर रही है।

कतर की इस ताकत पर एक पोस्ट आज #रिपोस्ट करने की जरूरत है। ये रही

1996 में अल जजीरा बना था,

महज एक अरबी चैनल के रूप में बना। मिडिल ईस्ट के देशों में तब कोई स्वतंत्र चैनल नही था। स्टेट चैनल होते थे, जिनका काम देश के नेता का गुणगान करना, अच्छे दिनों का बखान करना और खबरों को दिखाने की बजाय दबाना होता था।
तो अल जजीरा मिडिल ईस्ट के रेगिस्तान में एक नई हवा बना। सन्तुलित, निष्पक्ष कंटेंट, जमीनी रिपोर्टिंग, वो सुनाता कम, दिखाता ज्यादा.. जो जहां जैसा है, देखिये। बोलने का मौका सभी पक्षों को मिलता।

अरबी चैनल होने के बावजूद अंग्रेजी को भरपूर तरजीह दी। दुनिया के बड़े और नामचीन पत्रकारों को जोड़ा। जर्नलिज्म के एथिक्स तय किये।
दुनिया मे बीबीसी की जो वकत है, जो आदर्श हैं, जो शांत विचारण है, वही या उससे बेहतर बनना अल जजीरा के लिए तय किया गया लक्ष्य था।
उस दौर में जब अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, 9-11, अरब स्प्रिंग जैसी घटनाएं हो रही थी, अल जजीरा ने कमाल किया। हैरतअंगेज जमीनी रिपोर्ट, लाइव वार जोन, जान हथेली पर लेकर चलते पत्रकार।

तब से आजतक दर्जन से ऊपर पत्रकार मारे जा चुके। कुछ कैप्चर हुए, बहुतेरे घायल। लेकिन न अल जजीरा डरा, न उसके निडर पत्रकार।
उसने तस्वीर का दूसरा रुख भी सामने रखा। अरब, इजराइल, अलकायदा जैसे विलेन को भी अल जजीरा का माइक मिला। कोई पक्ष कुछ भी बोले, तय तो व्यूवर को करना था, की विश्वास किसका करे।

तो व्यूवर ने चाहे जिसके पक्ष का यकीन किया हो, भरोसा हमेशा अल जजीरा का बढ़ता गया।

आज अल जजीरा दुनिया के हर देश के ऑपरेट कर रहा है। उसके कवरेज, उसकी खबरें, उसके एंकर, उसके कंटेंट को बियॉन्ड डाऊट एक्सेप्ट किया जाता है। लेकिन मैं आपसे अल जजीरा की बात नही कर रहा।

मेरी बात तो कतर की है।

मिडिल ईस्ट के इस अनजान देश के शाह ने, इस चैनल को शुरू कराया। काम करने की पूरी स्वतंत्रता दी। अब 25 साल में अल जजीरा ने कतर को वह हैसियत दे दी, की वो मिडिल ईस्ट की एक प्रमुख राजनीतिक ताकत बन गया है।
दोहा, अब एशिया का नॉर्वे बन गया है।

वह तालिबान अमेरिका के बीच शांति वार्ता करवा रहा है। यमन के विद्रोही गुटों में शांति करवा रहा है। अरब इजराइल विवाद और गाजा पट्टी के मामलों में मध्यस्थता कर रहा है।

जिस देश की अदरवाइज कोई औकात ही नही, महज एक न्यूज नेटवर्क के दम पर वैश्विक ताकत बन चुका है।

मध्यपूर्व की जियोपोलिटिक्स में, अब कोई फैसला कतर को नकार कर नही हो सकता। कोशिश की गई थी, चार साल पहले जब पड़ोसी अरब देशों ने कतर पर ब्लोकेड किया गया।
उन सबने देशों ने ब्लोकेड हटाने के लिए इस चैनल को बन्द करने की शर्त रखी। कतर ने नही माना, विरोधियों को ही झुकना पड़ा,

लेकिन कतर की बढ़ती हैसियत में अल जजीरा का महत्व दुनिया ने समझ लिया। इस बरस अल जजीरा अपनी 25 वी वर्षगाँठ, याने रजत जयंती मना रहा है।
25 साल पहले भारत मे भी सेटेलाइट क्रांति हुई, चैनल आये, न्यूज स्वतंत्र हुई। अब सरकारी टेलीविजन पर हम निर्भऱ नही थे।
न्यूज निष्पक्ष, खोजपरक होने लगी। लगता था, दस बीस सालों में हिंदुस्तान भी, कोई बीबीसी, कोई अल जजीरा पैदा कर लेगा।

लेकिन ऐसा, हो नही सका। हमारे चैनल रद्दी का टोकरा और सरकारी माउथपीस बन गए। सरकारी विज्ञापन, नफरत की खेती, रद्दी बहसें, बेकार मुद्दे, खराब रिसर्च और एकपक्षीय कवरेज ने भारत के चैनलों को वैश्विक स्तर पर मजाक बना दिया है।
प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में हम अफ्रीकी तानाशाहियों के बीच बैठे है। विदेशी चैनल हंसते है, हमारी न्यूज फुटेज दिखाकर, जहां युध्द के वीडियो गेम को अफगानिस्तान की फुटेज बता दी जाती है। जिन बहसों को हम गम्भीरता से लेकर भुजाएं फड़काते हैं, विदेशी उसे मीम की तरह मजे लेते हैं।
फेक न्यूज अब भारतीय चैनलों की यूएसपी है। ड्रग दो, ड्रग दो के तमाशे है। हिन्दू मुस्लिम शोर ,बैठ जा मौलाना की धमकियां हैं।

पैसे किस एंकर ने कितने कमाए, कौन जाने। पर यह हम जानते हैं, कि भारत किसी अल जजीरा जैसे चैनल के बूते, कतर की तरह वैश्विक सीढियां चढ़ने से महरूम रह गया।
भारतीय मीडिया ये कर सकता था। इन्वेस्टमेंट, टैलेन्ट, आजादी सब कुछ मिलने के बावजूद, उसने यह रास्ता अख्तियार नही किया। तो क्या यह अपने आपमे देशद्रोह नही। चंद पैसों के निजी लाभ के लिए देश को पीछे धकेल देना, आखिर और क्या कहलाता है??
इस देशद्रोही प्रसारण के दर्शक, टीआरपी दाता, अगर आप भी थे, तो आप क्यो देशद्रोही नही गिने जाएं, सोचकर बताइएगा।

और यह भी सोचिये, की ऐसे कितने क्षेत्र है, जिसमे अगुआ बनने का अवसर हमने इस जहालत के दौर में खोया है।
कितने टैलेंट जात धर्म की लड़ाई में बर्बाद किये है। कितना विमर्श, समय, बहसें हमने उन चीजों पर खर्च किये, जिसका कोई हासिल नही।

पलटकर हमारी अगली पीढ़ीयां जब देखेंगी.
तब पाएंगी कि हमने भारत को वहां तक ले जाकर नही छोड़ा, जिसका हममें पोटेंशियल था। जिसका अवसर खुला था.
बल्कि हमने सब कुछ पीछे धकेल दिया। एक अंतहीन खड्डे में। तब क्या वे हमें एक देशद्रोही पीढ़ी के रूप में याद नही करेंगे ?

संवाद; मनीष सिंह

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