बेख़ौफ़ कलमकार कभी मौत से डरते नही , मरना तो है ही एक न एक दिन क्योकि डर के आगे जीत है !

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रिपोर्टर.

पत्रकार निरंजन टाकले की जान को खतरा ! आप जानते तो हैं कि जज को किसने मारा ?

25 नवंबर की देर रात दिल्ली के एक पत्रकार को मुंबई से एक फ़ोन आया।

फ़ोन करने वाले ने बताया कि जस्टिस ब्रजगोपाल लोया की संदिग्ध मौत को लेकर अंग्रेज़ी पत्रिका ‘कारवाँ में बड़ा रहस्योद्घाटन करने वाले पत्रकार निरंजन टाकले लापता हो गए हैं।
पत्रकार ने तस्दीक करने की कोशिश की लेकिन कुछ पता नही चला।

आशंका की गंभीरता अपनी जगह, लेकिन हो सकता है कि निरंजन टाकले ने फ़ोन बंद कर दिया हो या माहौल को देखते हुए किसी से बात न करना चाहते हों,मगर लोग चिंतित हैं।
उन्हें लगता है कि उनकी जान को ख़तरा है क्योंकि निरंजन टाकले ने जो किया है, उसकी उम्मीद पत्रकारों या पत्रकारिता से अब नहीं की जाती।

लोग जानते हैं कि सोहराबुद्दीन फ़र्ज़ी मुठभेड़ मामले में अमित शाह के शामिल होने को लेकर फ़ैसला देने की तैयारी कर रहे जज ब्रजगोपाल लोया की मौत के पीछे कौन है?

इसलिए भी उन्हें ऐसी हर आशंका सही लगती है जो बताती है कि निरंजन टाकले की जान ख़तरे में है।
वाक़ई, एम्बेडेड यानी नत्थी पत्रकारिता के दौर में निरंजन टाकले ने जो किया है,
उसने पत्रकारिता के इतिहास में एक सुनहरे अक्षर जोडे है।
याद रखिए कि निरंजन टाकले ने इसकी बड़ी क़ीमत दी है, वे एक नामी रिपोर्टर हैं।

जब उन्होंने यह रिपोर्ट तैयार की तो वे मशहूर अंग्रेज़ी पत्रिका द वीक के साथ जुड़े थे। लेकिन द वीक में यह ख़बर नहीं छपी।
समझा जा सकता है कि किस तनाव से गुज़रे होंगे निरंजन ?
विज्ञान चेतना के प्रसार में जुटे, खगोलविद अमिताभ पांडेय बताते हैं कि ‘निरंजन से क़रीब साल भर पहले वे मुंबई स्थित उनकी पत्रिका के दफ़्तर में मिले थे।
वे वहाँ ऐसी दबी ज़बान में बात कर रहे थे जैसे कोई चोरी की है।
आख़िरकार निरंजन ने द वीक को अलविदा कह दिया।
हमें ठीक-ठीक नहीं पता, लेकिन समझा जा सकता है कि यह कितना तनाव भरा फ़ैसला रहा होगा!
कोई रिपोर्टर जान लगाकर रिपोर्ट तैयार करे और उसका संस्थान किसी डर की वजह से ख़बर को ड्रॉप कर दे! किसी संवेदनशील रिपोर्टर के लिए यह टूट जाने वाली बात है।

बहरहाल, निरंजन के जुनून ने उन्हें ‘कारवाँ’ तक पहुँचाया जिसने यह स्टोरी की।
इस भयग्रस्त समय में ‘कारवाँ’ का यह साहस भी इतिहास में दर्ज किया जाएगा।
पूरा कारोबारी मीडिया चुप लगाए बैठा है।
साहसी पत्रकारिता के लिए हर साल ‘रामनाथ गोयनका अवार्ड’ बाँटने वाला इंडियन एक्सप्रेस भी मुँह सिले बैठा है?
पर सोशल मीडिया ने इस ख़बर को उठा लिया है। दिनों दिन यह ख़बर फैलती जा रही है।
एनडीटीवी में रवीश कुमार इस ख़बर को फ़ालो कर रहे हैं। उन्होंने लिखा–
आप जानते तो हैं जज को किसने मारा !
जीवन में डर को जगह मत दीजिए। वरना एक दिन डर आपको जीने की जगह नहीं देगा।

हैरान हूँ कि मामूली बयानों को लेकर लिखने न बोलने के लिए ललकारने वाले भी नहीं आए।
एक रिपोर्टर ने इस स्टोरी के लिए नौकरी छोड़ दी । हर तरफ भटकता रहा कि कोई इसे छाप दे।
कई महीने इसी में गुज़र गए। वरना ये स्टोरी बहुत पहले सामने हो सकती थी।
अभी क्यों टाइप के सवाल पूछने वाले कुछ मूर्खों को यही सवाल नज़र आता है कि अभी क्यों। अभी क्यों नेहरू,अभी क्यों पटेल।

इसका क्या जवाब दिया जाए। निरंजन टाकले को इस स्टोरी ने कितना डराया होगा मगर वे अपने डर को जीत गए।
आप भी अपने डर को जीत लीजिए। सबके सामने डर लगता है तो बाथरूम का दरवाज़ा बंद कीजिए और एक घंटे तक चीख़ते रहिए। आप डर से निकल आएँगे। फ्लश कर दीजिएगा।
इस स्टोरी की डिटेल ने सिहरन पैदा की है।
पाठकों में से आप कौन हैं मालूम नहीं पर आप जिस भी तरफ हैं, इस स्टोरी से बाहर नहीं हैं।
आप या आपका भी कोई सीबीआई के स्पेशल जज की नियति प्राप्त कर सकता है।

मार दिया जा सकता है। आज भले लगता होगा कि आप बहुत समर्थकों से घिरे हैं और सुरक्षित हैं।
याद रखिएगा असहमति या साहस का एक कदम आपको जज की तरह अकेला कर देगा।
वही समर्थक जो डरना सीख गए हैं, चुप रहना सीख गए हैं, आपको लेकर चुप हो जाएँगे।

आप तभी तक उस झुंड के लायक हैं जब तक आप उस झुंड के सरगना से डरते हैं। डरा हुआ आदमी मरा हुआ आदमी होता है।
अपने भीतर किसके लिए इस लाश को ढो रहे हैं। सोचिए एक बार।
कहाँ तक चुप रहेंगे और कब तक। जज वकील सब डर रहे हैं।

जो लोग मुझे ललकारना भूल गए, उनके लिए अपने शो का लिंक दे रहा हूं ताकि वे इसे लाखों तक पहुँचा कर डर से मुक्ति की इस यात्रा में शामिल हो सकें।
कारवाँ ने हिन्दी में भी अपनी स्टोरी छाप दी है।
मीडिया विजील, जनचौक और वायर ने भी हिन्दी में छापा है।

उधर, वरिष्ठ पत्रकार अरविंद शेष ने निरंजन टाकले की रिपोर्ट को ‘मानक’ बताते हुए लिखा है।
यानी जब हम जस्टिस लोया की मौत की रिपोर्ट पढ़ें तो याद रखें कि इसे करने के लिए एक रिपोर्टर ने क्या-क्या दाँव पर लगाया है।
नौकरी तो छोड़ी ही, अब उसकी जान भी ख़तरे में बताई जा रही है।

26 नवंबर (1949) को संविधान सभा ने संविधान को स्वीकार किया था।

संविधान की उद्देशिका पर नज़र डालिए, आपको समझ आ जाएगा कि निरंजन टाकले की ख़बर संविधान को बचाने की लड़ाई से किस तरह जुड़ी है।
निरंजन अपने ट्विटर हैंडल पर ख़ुद को ‘मानवतावादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ बताते हैं।

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