कई ज़बानें सीखना क्यों फायदेमंद है ?
रिपोर्टर:-
हमारे यहां जब ज़्यादा भाषाओं का जानकार होने की बात आती है तो अक्सरियत इसकी अहमियत नही समझती।
इस सिलसिले में वाल्दैन भी कंफ्यूजन का शिकार रहते है और कहते है !
कितनी ज़बानें सीखेंगे हमारे बच्चे ? ये तो ज़ुल्म है, इस कच्ची उम्र और कच्चे ज़हनों पर इतनी सारी ज़बानें सीखना तो बस बोझ है और कुछ नही।
इन्ही रवैयों और सोच की वजह से हमारे बच्चे कसीर-उल-लिसान ( ज़्यादा ज़बानों के जानकार ) नही बन पा रहे।
इमाम-ए-कायनात सैय्यदना मुहम्मद सल लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़माने में आप के सहाबा उस ज़माने में रायज अक्सर ज़बानें जानते थे।
अलबत्ता आप स.अ. व. ने नोट किया के आपके सहाबा में एक ज़बान सिरयानी जानने वाला कोई नही है, ।
और सिरयानी ज़बान यूं दिनों यहूदियों में काफी मक़बूल थी, हमारे नबी स. अ. स. ने अपने किसी चहेते सहाबी ज़ैद बिन साबित ( जो के कातीबे वही थे ) को सिरयानी ज़बान सीखने के लिये दूसरे मुल्क भेजा।
ये ज़बान सीख कर कुछ अरसे बाद जब हज़रत ज़ैद बिन साबित वापस आए और सिरयानी ज़बान में खिताब देने लगे तो इस्लाम का पैगाम यहूदियों में तेज़ी से आम होता गया।
अब आज हमारा हाल देख लीजिए, मिसाल दें महाराष्ट्र की, यहां के मराठी चैंनलों के न्यूज़ बुलेटिन में बतौर मेहमान ए खुसूसी मराठी में गुफ़्तुगू करने के लिए आलिमे दीन मिलते ही नही।
महाराष्ट्र की आबादी 11 करोड़ है, इनमे 8 करोड़ लोग सिर्फ मराठी ज़बान समझते हैं।
यानी अरब मुल्कों की कुल आबादी के बराबर एक रियासत की 8 करोड़ अवाम तक हम अपने दीने हक़ का पैगाम नही पहुंचा पा रहे।
हमें इसका अफसोस या अहसास भी है? ये मामला सिर्फ मराठी या महाराष्ट्र का नही है, ऐसी मुल्क की कई रियासतें हैं।
क़ौम जागी तो है मगर इस हद तक के अपने बच्चे को एसएससी तक तालीम दिलवानी है।
15 से 20 फीसद कुछ ज़्यादा जागे और वो अपने बच्चों को प्रोफेशनल आला तालीम से भी आरास्ता कर रहे हैं।
जो वाल्दैन ये समझते है कि ज़्यादा ज़बानें सिखाना बच्चों पर जुल्म है वो सुन ले कि कुछ साल पहले ये तहक़ीक़ हो चुकी है कि एक औसत तालिबे इल्म ( जो 35 से 40 फीसद नंबर हासिल करता है ) वो अपनी ज़िंदगी मे 4 ज़बानें न सिर्फ सीख सकता है बल्कि उनपर उबूर भी हासिल कर सकता है।
जो बच्चा ज़हीन हु वो 7/8 ज़बानों का माहिर बन सकता है।
जो इंतहाई ज़हीन हो वो 12/13 ज़बानों पर उबूर हासिल कर सकता है।
अगर हम हमारे बच्चों को औसत भी माने तो वो 4 ज़बानें तो सीख सकते हैं।
ज़बान की अहमियत पर एक आखरी मिसाल।
मुम्बई के किसी चौराहे पर एक पुलिस कांस्टेबल खड़ा है,
उस से आप किसी रास्ते के मुताल्लिक़ ( मसलन उर्दू में ) पूछ लीजिये, वो शायद कोई दिलचस्पी नही दिखायेगा,
हालांकि वो डयूटी में मसरूफ नही, अब उसे सवाल मराठी में पूछ लीजिए जबकि वो ड्यूटी में मसरूफ हो,
वो अपनी सीटी और डयूटी छोड़ कर आपकी रहनुमाई करेगा, क्यों ?
क्योंकि आपने सवाल रियासती ज़बान में पूछा, जो उसकी मादरी ज़बान है, जिस से उसे लगाव है।
वो अपनी ज़बान के ताल्लुक़ से जज़्बाती है।
जिस तरह आप अपनी ज़बान के ताल्लुक़ से जज़्बाती है। यानी जिस रियासत ( राज्य, state ) में आप हो वहां की रियासती ज़बान पर आपको उबूर हासिल होना चाहिए क्योंकि वहां के तमाम सरकारी दफ्तरों की वही ज़बान होती है।
अगर आप वो ज़बान नही जानते तो क़दम क़दम आपको मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।